Sunday, November 14, 2010

तुम गये चितचोर् (Tum Gaye Chitchor) - गोपालदास 'नीरज'(Gopaldas 'Neeraj')

स्वप्न्-सज्जित प्यार मेरा,
कल्पना का तार मेरा,
एक क्षण मे मधुर निषठुर् तुम गये झकझोर्!
तुम गये चितचोर्!

हाय! जाना ही तुम्हे था,
यो' रुलाना ही तुम्हे था,
तुम गये प्रिय, पर गये क्यो' नही' ह्रदय मरोर्!
तुम गये चितचोर्!

लुट गया सर्वस्व मेरा,
नयन मे' इतना अन्धेरा,
घोर निशि मे' भी चमकती है नयन की कोर्!
तुम गये चितचोर्!

Thursday, November 11, 2010

व्यंग्य (Vyangya) - शैल चतुर्वेदी (Shail Chaturvedi)

हमनें एक बेरोज़गार मित्र को पकड़ा
और कहा, "एक नया व्यंग्य लिखा है, सुनोगे?"
तो बोला, "पहले खाना खिलाओ।"
खाना खिलाया तो बोला, "पान खिलाओ।"
पान खिलाया तो बोला, "खाना बहुत बढ़िया था
उसका मज़ा मिट्टी में मत मिलाओ।
अपन ख़ुद ही देश की छाती पर जीते-जागते व्यंग्य हैं
हमें व्यंग्य मत सुनाओ
जो जन-सेवा के नाम पर ऐश करता रहा
और हमें बेरोज़गारी का रोजगार देकर
कुर्सी को कैश करता रहा।

व्यंग्य उस अफ़सर को सुनाओ
जो हिन्दी के प्रचार की डफली बजाता रहा
और अपनी औलाद को अंग्रेज़ी का पाठ पढ़ाता रहा।
व्यंग्य उस सिपाही को सुनाओ
जो भ्रष्टाचार को अपना अधिकार मानता रहा
और झूठी गवाही को पुलिस का संस्कार मानता रहा।
व्यंग्य उस डॉक्टर को सुनाओ
जो पचास रूपये फ़ीस के लेकर
मलेरिया को टी०बी० बतलाता रहा
और नर्स को अपनी बीबी बतलाता रहा।

व्यंग्य उस फ़िल्मकार को सुनाओ
जो फ़िल्म में से इल्म घटाता रहा
और संस्कृति के कपड़े उतार कर सेंसर को पटाता रहा।
व्यंग्य उस सास को सुनाओ
जिसने बेटी जैसी बहू को ज्वाला का उपहार दिया
और व्यंग्य उस वासना के कीड़े को सुनाओ
जिसने अपनी भूख मिटाने के लिए
नारी को बाज़ार दिया।
व्यंग्य उस श्रोता को सुनाओ
जो गीत की हर पंक्ति पर बोर-बोर करता रहा
और बकवास को बढ़ावा देने के लिए
वंस मोर करता रहा।

व्यंग्य उस व्यंग्यकार को सुनाओ
जो अर्थ को अनर्थ में बदलने के लिए
वज़नदार लिफ़ाफ़े की मांग करता रहा
और अपना उल्लू सीधा करने के लिए
व्यंग्य को विकलांग करता रहा।

और जो व्यंग्य स्वयं ही अन्धा, लूला और लंगड़ा हो
तीर नहीं बन सकता
आज का व्यंग्यकार भले ही "शैल चतुर्वेदी" हो जाए
'कबीर' नहीं बन सकता।

Monday, November 8, 2010

वीर तुम बढ़े चलो (Veer Tum Badhe Chalo) - द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी (Dwarika Prasad Maheshwari)

वीर तुम बढ़े चलो ! धीर तुम बढ़े चलो !

हाथ में ध्वजा रहे बाल दल सजा रहे
ध्वज कभी झुके नहीं दल कभी रुके नहीं
वीर तुम बढ़े चलो ! धीर तुम बढ़े चलो !

सामने पहाड़ हो सिंह की दहाड़ हो
तुम निडर डरो नहीं तुम निडर डटो वहीं
वीर तुम बढ़े चलो ! धीर तुम बढ़े चलो !

प्रात हो कि रात हो संग हो न साथ हो
सूर्य से बढ़े चलो चन्द्र से बढ़े चलो
वीर तुम बढ़े चलो ! धीर तुम बढ़े चलो !

एक ध्वज लिये हुए एक प्रण किये हुए
मातृ भूमि के लिये पितृ भूमि के लिये
वीर तुम बढ़े चलो ! धीर तुम बढ़े चलो !

अन्न भूमि में भरा वारि भूमि में भरा
यत्न कर निकाल लो रत्न भर निकाल लो
वीर तुम बढ़े चलो ! धीर तुम बढ़े चलो !

Sunday, November 7, 2010

झाला का बलिदान (Jhala Ka Balidan) -

दानव समाज में अरुण पड़ा
जल जन्तु बीच हो वरुण पड़ा
इस तरह भभकता था राणा
मानो सर्पो में गरुड़ पड़ा

हय रुण्ड कतर, गज मुण्ड पाछ
अरि व्यूह गले पर फिरती थी
तलवार वीर की तड़प तड़प
क्षण क्षण बिजली सी गिरती थी

राणा कर ने सर काट काट
दे दिए कपाल कपाली को
शोणित की मदिरा पिला पिला
कर दिया तुष्ट रण काली को

पर दिन भर लड़ने से तन में
चल रहा पसीना था तर तर
अविरल शोणित की धारा थी
राणा क्षत से बहती झर झर

घोड़ा भी उसका शिथिल बना
था उसको चैन ना घावों से
वह अधिक अधिक लड़ता यद्दपि
दुर्लभ था चलना पावों से

तब तक झाला ने देख लिया
राणा प्रताप है संकट में
बोला न बाल बांका होगा
जब तक हैं प्राण बचे घट में

अपनी तलवार दुधारी ले
भूखे नाहर सा टूट पड़ा
कल कल मच गया अचानक दल
अश्विन के घन सा फूट पड़ा

राणा की जय, राणा की जय
वह आगे बढ़ता चला गया
राणा प्रताप की जय करता
राणा तक चढ़ता चला गया

रख लिया छत्र अपने सर पर
राणा प्रताप मस्तक से ले
ले सवर्ण पताका जूझ पड़ा
रण भीम कला अंतक से ले

झाला को राणा जान मुगल
फिर टूट पड़े थे झाला पर
मिट गया वीर जैसे मिटता
परवाना दीपक ज्वाला पर

झाला ने राणा रक्षा की
रख दिया देश के पानी को
छोड़ा राणा के साथ साथ
अपनी भी अमर कहानी को

अरि विजय गर्व से फूल उठे
इस त रह हो गया समर अंत
पर किसकी विजय रही बतला
ऐ सत्य सत्य अंबर अनंत ?

Saturday, November 6, 2010

कारवां गुज़र गया (Karwan Guzar Gaya) - गोपालदास 'नीरज'(Gopaldas 'Neeraj')

स्वप्न झरे फूल से,
मीत चुभे शूल से,
लुट गये सिंगार सभी बाग़ के बबूल से,
और हम खड़े-खड़े बहार देखते रहे
कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे!

नींद भी खुली न थी कि हाय धूप ढल गई,
पाँव जब तलक उठे कि ज़िन्दगी फिसल गई,
पात-पात झर गये कि शाख़-शाख़ जल गई,
चाह तो निकल सकी न, पर उमर निकल गई,
गीत अश्क़ बन गए,
छंद हो दफ़न गए,
साथ के सभी दिऐ धुआँ-धुआँ पहन गये,
और हम झुके-झुके,
मोड़ पर रुके-रुके
उम्र के चढ़ाव का उतार देखते रहे
कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे।

क्या शबाब था कि फूल-फूल प्यार कर उठा,
क्या सुरूप था कि देख आइना मचल उठा
इस तरफ जमीन और आसमां उधर उठा,
थाम कर जिगर उठा कि जो मिला नज़र उठा,
एक दिन मगर यहाँ,
ऐसी कुछ हवा चली,
लुट गयी कली-कली कि घुट गयी गली-गली,
और हम लुटे-लुटे,
वक्त से पिटे-पिटे,
साँस की शराब का खुमार देखते रहे
कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे।

हाथ थे मिले कि जुल्फ चाँद की सँवार दूँ,
होंठ थे खुले कि हर बहार को पुकार दूँ,
दर्द था दिया गया कि हर दुखी को प्यार दूँ,
और साँस यूँ कि स्वर्ग भूमी पर उतार दूँ,
हो सका न कुछ मगर,
शाम बन गई सहर,
वह उठी लहर कि दह गये किले बिखर-बिखर,
और हम डरे-डरे,
नीर नयन में भरे,
ओढ़कर कफ़न, पड़े मज़ार देखते रहे
कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे!

माँग भर चली कि एक, जब नई-नई किरन,
ढोलकें धुमुक उठीं, ठुमक उठे चरण-चरण,
शोर मच गया कि लो चली दुल्हन, चली दुल्हन,
गाँव सब उमड़ पड़ा, बहक उठे नयन-नयन,
पर तभी ज़हर भरी,
ग़ाज एक वह गिरी,
पुंछ गया सिंदूर तार-तार हुई चूनरी,
और हम अजान से,
दूर के मकान से,
पालकी लिये हुए कहार देखते रहे।
कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे।

Thursday, November 4, 2010

पद्मावती-नागमती-सती-खंड - पद्मावत (Padmavati - Nagmati - Sati Khand - Padmavat )मलिक मोहम्मद जायसी (Malik Mohammed Jayasi)

पदमावति पुनि पहिरि पटोरी । चली साथ पिउ के होइ जोरी ॥
सूरुज छपा, रैनि होइ गई । पूनो-ससि सो अमावस भई ॥
छोरे केस, मोति लर छूटीं । जानहुँ रैनि नखत सब टूटीं ॥
सेंदुर परा जो सीस अघारा । आगि लागि चह जग अँधियारा ॥
यही दिवस हौं चाहति, नाहा । चलौं साथ, पिउ ! देइ गलबाहाँ ॥
सारस पंखि न जियै निनारे । हौं तुम्ह बिनु का जिऔं, पियारे ॥
नेवछावरि कै तन छहरावौं । छार होउँ सँग, बहुरि न आवौं ॥

दीपक प्रीति पतँग जेउँ जनम निबाह करेउँ ।
नेवछावरि चहुँ पास होइ कंठ लागि जिउ देउँ ॥1॥

नागमती पदमावति रानी । दुवौ महा सत सती बखानी ॥
दुवौ सवति चढि खाट बईठीं । औ सिवलोक परा तिन्ह दीठी ॥
बैठौ कोइ राज औ पाटा । अंत सबै बैठे पुनि खाटा ॥
चंदन अगर काठ सर साजा । औ गति देइ चले लेइ राजा ॥
बाजन बाजहिं होइ अगूता । दुवौ कंत लेइ चाहहिं सूता ॥
एक जो बाजा भएउ बियाहू । अब दुसरे होइ ओर-निबाहू ॥
जियत जो जरै कंत के आसा । मुएँ रहसि बैठे एक पासा ॥

आजु सूर दिन अथवा, आजु रेनि ससि बूड ।
आजु नाचि जिउ दीजिय, आजु आगि हम्ह जूड ॥2॥

सर रचि दान पुन्नि बहु कीन्हा । सात बार फिरि भाँवरि लीन्हा ॥
एक जो भाँवरि भईं बियाही । अब दुसरे होइ गोहन जाहीं ॥
जियत, कंत ! तुम हम्ह गर लाई । मुए कंठ नहिं छोडँहिं,साईं !
औ जो गाँठि, कंत ! तुम्ह जोरी । आदि अंत लहि जाइ न छोरी ।
यह जग काह जो अछहि न आथी । हम तुम, नाह ! दुहुँ जग साथी ॥
लेइ सर ऊपर खाट बिछाई । पौंढी दुवौ कंत गर लाई ॥
लागीं कंठ आगि देइ होरी । छार भईं जरि, अंग न मोरी ॥

रातीं पिउ के नेह गइँ, सरग भएउ रतनार ।
जो रे उवा , सो अथवा; रहा न कोइ संसार ॥3॥

वै सहगवन भईं जब जाई । बादसाह गड छेंका आई ॥
तौ लगि सो अवसर होइ बीता । भए अलोप राम औ सीता ॥
आइ साह जो सुना अखारा । होइगा राति दिवस उजियारा ॥
छार उठाइ लीन्ह एक मूठी । दीन्ह उडाइ, पिरथिमी झूठी ॥
सगरिउ कटक उठाई माटी । पुल बाँधा जहँ जहँ गढ-घाटी ॥
जौ लहि ऊपर छार न परै । तौ लहि यह तिस्ना नहिं मरै ॥
भा धावा, भइ जूझ असूझा । बादल आइ पँवरि पर जूझा ॥

जौहर भइ सब इस्तरी, पुरुष भए संग्राम ।
बादसाह गढ चूरा, चितउर भा इसलाम ॥4॥


(1) आगि लागि ...अँधियार = काले बालों के बीच लाल सिंदूर मानो यह सूचित करता था कि अँधेरे संसार में आग लगा चाहती है ।छहराऊँ =छितराऊँ ।

(2) महासत = सत्य में तिन्ह दीठि परा = उन्हें दिखाई पडा । बैठी चाहे बैठे । खाटा = अर्थी, टिकठी । अगूता होइ = आगे होकर । सूता चहहिं = सोना चाहती हैं । बाजा = बाजे से । ओर निबाहू = अंत का निर्वाह । रहसि = प्रसन्न होकर । बूड = डूबा । हम्ह = हमें हमारे लिये । जूड = ठंढी ।

(3) सर = चिता । गोहन =साथ । हम्ह गर लाई = हमें गले लगाया । अंत लहि = अंत तक । अछहि = है । आथी = सार; पूँजी, अस्तित्व । अछहि न आथी । जो स्थिर या सारवान् नहीं रतनार = लाल, प्रेममय या आभापूर्ण

(4) सहगवन भईं = पति के साथ सहगमन किया, सती हुई । तौ लगि...बीता = तब तक तो वहाँ सब कुछ हो चुका था । अखारा = अखाडे । या सभा में,दरबार में । गढ घाटी = गढ की खाईं । पुल बाँधा...घाटी = सती स्त्रियों एक मुट्ठी राख इतनी हो गई कि उसने जगह जगह खाईं पट गई और पुल सा बँध गया । जौ लहि = जबतक । तिस्ना = तृष्णा । जौहर भइँ = राजपूत प्रथा के अनुसार जल मरीं । संग्राम भए = खेत रहे, लडकर मरे । चितउर भा इसलाम = चित्तौरगढ में भी मुसलमानी अमलदारी हो गई ।

Wednesday, November 3, 2010

करि की चुराई चाल, सिंह को चुरायो कटि (Kari Ki Churayi Chal, Singh Ko Churayo Kati) - बेनी (Beni)

करि की चुराई चाल सिंह को चुरायो लंक
दूध को चुरायो रंग, नासा चोरी कीर की
पिक को चुरायो बैन, मृग को चुरायो नैन
दसन अनार, हाँसी बीजुरी गँभीर की
कहे कवे ‘बेनी’ बेनी व्याल की चुराय लीनी
रति रति सोभा सब रति के सरीर की
अब तो कन्हैया जी को चित हू चुराय लीनो
चोरटी है गोरटी या छोरटी अहीर की

Tuesday, November 2, 2010

क्योंकि सपना है अभी भी (Kyonki Sapna Hai Abhi Bhi) - धर्मवीर भारती (Dharamvir Bharti)

...क्योंकि सपना है अभी भी
इसलिए तलवार टूटी अश्व घायल
कोहरे डूबी दिशाएं
कौन दुश्मन, कौन अपने लोग, सब कुछ धुंध धूमिल
किन्तु कायम युद्ध का संकल्प है अपना अभी भी
...क्योंकि सपना है अभी भी!

तोड़ कर अपने चतुर्दिक का छलावा
जब कि घर छोड़ा, गली छोड़ी, नगर छोड़ा
कुछ नहीं था पास बस इसके अलावा
विदा बेला, यही सपना भाल पर तुमने तिलक की तरह आँका था
(एक युग के बाद अब तुमको कहां याद होगा?)
किन्तु मुझको तो इसी के लिए जीना और लड़ना
है धधकती आग में तपना अभी भी
....क्योंकि सपना है अभी भी!

तुम नहीं हो, मैं अकेला हूँ मगर
वह तुम्ही हो जो
टूटती तलवार की झंकार में
या भीड़ की जयकार में
या मौत के सुनसान हाहाकार में
फिर गूंज जाती हो

और मुझको
ढाल छूटे, कवच टूटे हुए मुझको
फिर तड़प कर याद आता है कि
सब कुछ खो गया है - दिशाएं, पहचान, कुंडल,कवच
लेकिन शेष हूँ मैं, युद्धरत् मैं, तुम्हारा मैं
तुम्हारा अपना अभी भी

इसलिए, तलवार टूटी, अश्व घायल
कोहरे डूबी दिशाएं
कौन दुश्मन, कौन अपने लोग, सब कुछ धूंध धुमिल
किन्तु कायम युद्ध का संकल्प है अपना अभी भी
... क्योंकि सपना है अभी भी!

Monday, November 1, 2010

चल गयी (Chal Gayi) - शैल चतुर्वेदी (Shail Chaturvedi)

वैसे तो एक शरीफ इंसान हूँ
आप ही की तरह श्रीमान हूँ
मगर अपनी आंख से
बहुत परेशान हूँ
अपने आप चलती है
लोग समझते हैं -- चलाई गई है
जान-बूझ कर मिलाई गई है।

एक बार बचपन में
शायद सन पचपन में
क्लास में
एक लड़की बैठी थी पास में
नाम था सुरेखा
उसने हमें देखा
और बांई चल गई
लड़की हाय-हाय
क्लास छोड़ बाहर निकल गई।

थोड़ी देर बाद
हमें है याद
प्रिंसिपल ने बुलाया
लंबा-चौड़ा लेक्चर पिलाया
हमने कहा कि जी भूल हो गई
वो बोल - ऐसा भी होता है भूल में
शर्म नहीं आती
ऐसी गंदी हरकतें करते हो,
स्कूल में?
और इससे पहले कि
हकीकत बयान करते
कि फिर चल गई
प्रिंसिपल को खल गई।
हुआ यह परिणाम
कट गया नाम
बमुश्किल तमाम
मिला एक काम।

इंटरव्यूह में, खड़े थे क्यू में
एक लड़की थी सामने अड़ी
अचानक मुड़ी
नजर उसकी हम पर पड़ी
और आंख चल गई
लड़की उछल गई
दूसरे उम्मीदवार चौंके
उस लडकी की साईड लेकर
हम पर भौंके
फिर क्या था
मार-मार जूते-चप्पल
फोड़ दिया बक्कल
सिर पर पांव रखकर भागे
लोग-बाग पीछे, हम आगे
घबराहट में घुस गये एक घर में
भयंकर पीड़ा थी सिर में
बुरी तरह हांफ रहे थे
मारे डर के कांप रहे थे
तभी पूछा उस गृहणी ने --
कौन ?
हम खड़े रहे मौन
वो बोली
बताते हो या किसी को बुलाऊँ ?
और उससे पहले
कि जबान हिलाऊँ
चल गई
वह मारे गुस्से के
जल गई
साक्षात दुर्गा-सी दीखी
बुरी तरह चीखी
बात की बात में जुड़ गये अड़ोसी-पड़ोसी
मौसा-मौसी
भतीजे-मामा
मच गया हंगामा
चड्डी बना दिया हमारा पजामा
बनियान बन गया कुर्ता
मार-मार बना दिया भुरता
हम चीखते रहे
और पीटने वाले
हमें पीटते रहे
भगवान जाने कब तक
निकालते रहे रोष
और जब हमें आया होश
तो देखा अस्पताल में पड़े थे
डाक्टर और नर्स घेरे खड़े थे
हमने अपनी एक आंख खोली
तो एक नर्स बोली
दर्द कहां है?
हम कहां कहां बताते
और इससे पहले कि कुछ कह पाते
चल गई
नर्स कुछ नहीं बोली
बाइ गॉड ! (चल गई)
मगर डाक्टर को खल गई
बोला --
इतने सीरियस हो
फिर भी ऐसी हरकत कर लेते हो
इस हाल में शर्म नहीं आती
मोहब्बत करते हुए
अस्पताल में?
उन सबके जाते ही आया वार्ड-बॉय
देने लगा अपनी राय
भाग जाएं चुपचाप
नहीं जानते आप
बढ़ गई है बात
डाक्टर को गड़ गई है
केस आपका बिगड़वा देगा
न हुआ तो मरा बताकर
जिंदा ही गड़वा देगा।
तब अंधेरे में आंखें मूंदकर
खिड़की के कूदकर भाग आए
जान बची तो लाखों पाये।

एक दिन सकारे
बाप जी हमारे
बोले हमसे --
अब क्या कहें तुमसे ?
कुछ नहीं कर सकते
तो शादी कर लो
लड़की देख लो।
मैंने देख ली है
जरा हैल्थ की कच्ची है
बच्ची है, फिर भी अच्छी है
जैसी भी, आखिर लड़की है
बड़े घर की है, फिर बेटा
यहां भी तो कड़की है।
हमने कहा --
जी अभी क्या जल्दी है?
वे बोले --
गधे हो
ढाई मन के हो गये
मगर बाप के सीने पर लदे हो
वह घर फंस गया तो संभल जाओगे।

तब एक दिन भगवान से मिल के
धड़कता दिल ले
पहुंच गए रुड़की, देखने लड़की
शायद हमारी होने वाली सास
बैठी थी हमारे पास
बोली --
यात्रा में तकलीफ तो नहीं हुई
और आंख मुई चल गई
वे समझी कि मचल गई
बोली --
लड़की तो अंदर है
मैं लड़की की मां हूँ
लड़की को बुलाऊँ
और इससे पहले कि मैं जुबान हिलाऊँ
आंख चल गई दुबारा
उन्होंने किसी का नाम ले पुकारा
झटके से खड़ी हो गईं
हम जैसे गए थे लौट आए
घर पहुंचे मुंह लटकाए
पिता जी बोले --
अब क्या फायदा
मुंह लटकाने से
आग लगे ऐसी जवानी में
डूब मरो चुल्लू भर पानी में
नहीं डूब सकते तो आंखें फोड़ लो
नहीं फोड़ सकते हमसे नाता ही तोड़ लो
जब भी कहीं जाते हो
पिटकर ही आते हो
भगवान जाने कैसे चलाते हो?

अब आप ही बताइये
क्या करूं?
कहां जाऊं?
कहां तक गुन गांऊं अपनी इस आंख के
कमबख्त जूते खिलवाएगी
लाख-दो-लाख के।
अब आप ही संभालिये
मेरा मतलब है कि कोई रास्ता निकालिये
जवान हो या वृद्धा पूरी हो या अद्धा
केवल एक लड़की
जिसकी एक आंख चलती हो
पता लगाइये
और मिल जाये तो
हमारे आदरणीय 'काका' जी को बताइये।

Saturday, October 30, 2010

और भी दूँ (Aur Bhi Doon) - रामावतार त्यागी (Ram Avtar Tyagi)

मन समर्पित, तन समर्पित
और यह जीवन समर्पित
चाहता हूँ देश की धरती, तुझे कुछ और भी दूँ

मॉं तुम्हारा ऋण बहुत है, मैं अकिंचन
किंतु इतना कर रहा, फिर भी निवेदन
थाल में लाऊँ सजाकर भाल में जब भी
कर दया स्वीकार लेना यह समर्पण

गान अर्पित, प्राण अर्पित
रक्त का कण-कण समर्पित
चाहता हूँ देश की धरती, तुझे कुछ और भी दूँ

मॉंज दो तलवार को, लाओ न देरी
बॉंध दो कसकर, कमर पर ढाल मेरी
भाल पर मल दो, चरण की धूल थोड़ी
शीश पर आशीष की छाया धनेरी

स्वप्न अर्पित, प्रश्न अर्पित
आयु का क्षण-क्षण समर्पित।
चाहता हूँ देश की धरती, तुझे कुछ और भी दूँ

तोड़ता हूँ मोह का बंधन, क्षमा दो
गॉंव मेरी, द्वार-घर मेरी, ऑंगन, क्षमा दो
आज सीधे हाथ में तलवार दे-दो
और बाऍं हाथ में ध्‍वज को थमा दो

सुमन अर्पित, चमन अर्पित
नीड़ का तृण-तृण समर्पित
चहता हूँ देश की धरती, तुझे कुछ और भी दूँ

Friday, October 29, 2010

कौन क्या-क्या खाता है ( Kaun Kya - Kya Khata Hai) - काका हाथरसी ( Kaka Hathrasi)

कौन क्या-क्या खाता है ?
खान-पान की कृपा से, तोंद हो गई गोल,
रोगी खाते औषधी, लड्डू खाएँ किलोल।
लड्डू खाएँ किलोल, जपें खाने की माला,
ऊँची रिश्वत खाते, ऊँचे अफसर आला।
दादा टाइप छात्र, मास्टरों का सर खाते,
लेखक की रायल्टी, चतुर पब्लिशर खाते।

दर्प खाय इंसान को, खाय सर्प को मोर,
हवा जेल की खा रहे, कातिल-डाकू-चोर।
कातिल-डाकू-चोर, ब्लैक खाएँ भ्रष्टाजी,
बैंक-बौहरे-वणिक, ब्याज खाने में राजी।
दीन-दुखी-दुर्बल, बेचारे गम खाते हैं,
न्यायालय में बेईमान कसम खाते हैं।

सास खा रही बहू को, घास खा रही गाय,
चली बिलाई हज्ज को, नौ सौ चूहे खाय।
नौ सौ चूहे खाय, मार अपराधी खाएँ,
पिटते-पिटते कोतवाल की हा-हा खाएँ।
उत्पाती बच्चे, चच्चे के थप्पड़ खाते,
छेड़छाड़ में नकली मजनूँ, चप्पल खाते।

सूरदास जी मार्ग में, ठोकर-टक्कर खायं,
राजीव जी के सामने मंत्री चक्कर खायं।
मंत्री चक्कर खायं, टिकिट तिकड़म से लाएँ,
एलेक्शन में हार जायं तो मुँह की खाएँ।
जीजाजी खाते देखे साली की गाली,
पति के कान खा रही झगड़ालू घरवाली।

मंदिर जाकर भक्तगण खाते प्रभू प्रसाद,
चुगली खाकर आ रहा चुगलखोर को स्वाद।
चुगलखोर को स्वाद, देंय साहब परमीशन,
कंट्रैक्टर से इंजीनियर जी खायं कमीशन।
अनुभवहीन व्यक्ति दर-दर की ठोकर खाते,
बच्चों की फटकारें, बूढ़े होकर खाते।

दद्दा खाएँ दहेज में, दो नंबर के नोट,
पाखंडी मेवा चरें, पंडित चाटें होट।
पंडित चाटें होट, वोट खाते हैं नेता,
खायं मुनाफा उच्च, निच्च राशन विक्रेता।
काकी मैके गई, रेल में खाकर धक्का,
कक्का स्वयं बनाकर खाते कच्चा-पक्का।

Thursday, October 28, 2010

आभार (Aabhar) - शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ (Shivmangal Singh 'Suman')

जिस-जिस से पथ पर स्नेह मिला, उस-उस राही को धन्यवाद

जीवन अस्थिर अनजाने ही, हो जाता पथ पर मेल कहीं,
सीमित पग डग, लम्बी मंज़िल, तय कर लेना कुछ खेल नहीं
दाएँ-बाएँ सुख-दुख चलते, सम्मुख चलता पथ का प्रमाद
जिस-जिस से पथ पर स्नेह मिला, उस-उस राही को धन्यवाद

साँसों पर अवलम्बित काया, जब चलते-चलते चूर हुई,
दो स्नेह-शब्द मिल गये, मिली नव स्फूर्ति, थकावट दूर हुई
पथ के पहचाने छूट गये, पर साथ-साथ चल रही याद
जिस-जिस से पथ पर स्नेह मिला, उस-उस राही को धन्यवाद

जो साथ न मेरा दे पाये, उनसे कब सूनी हुई डगर?
मैं भी न चलूँ यदि तो क्या, राही मर लेकिन राह अमर
इस पथ पर वे ही चलते हैं, जो चलने का पा गये स्वाद
जिस-जिस से पथ पर स्नेह मिला, उस-उस राही को धन्यवाद

कैसे चल पाता यदि न मिला होता मुझको आकुल अंतर?
कैसे चल पाता यदि मिलते, चिर-तृप्ति अमरता-पूर्ण प्रहर!
आभारी हूँ मैं उन सबका, दे गये व्यथा का जो प्रसाद
जिस-जिस से पथ पर स्नेह मिला, उस-उस राही को धन्यवाद

Wednesday, October 27, 2010

भीख माँगते शर्म नहीं आती (Bheekh Mangte Sharm Nahin Aati) - शैल चतुर्वेदी (Shail Chaturvedi)

लोकल ट्रेन से उतरते ही
हमने सिगरेट जलाने के लिए
एक साहब से माचिस माँगी,
तभी किसी भिखारी ने
हमारी तरफ हाथ बढ़ाया,
हमने कहा-
"भीख माँगते शर्म नहीं आती?"

ओके, वो बोला-
"माचिस माँगते आपको आयी थी क्‍या?"
बाबूजी! माँगना देश का करेक्‍टर है,
जो जितनी सफ़ाई से माँगे
उतना ही बड़ा एक्‍टर है,
ये भिखारियों का देश है
लीजिए! भिखारियों की लिस्‍ट पेश है,

धंधा माँगने वाला भिखारी
चंदा माँगने वाला
दाद माँगने वाला
औलाद माँगने वाला
दहेज माँगने वाला
नोट माँगने वाला
और तो और
वोट माँगने वाला
हमने काम माँगा
तो लोग कहते हैं चोर है,
भीख माँगी तो कहते हैं,
कामचोर है,

उनमें कुछ नहीं कहते,
जो एक वोट के लिए ,
दर-दर नाक रगड़ते हैं,
घिस जाने पर रबर की खरीद लाते हैं,
और उपदेशों की पोथियाँ खोलकर,
महंत बन जाते हैं।
लोग तो एक बिल्‍ले से परेशान हैं,
यहाँ सैकड़ों बिल्‍ले
खरगोश की खाल में देश के हर कोने में विराजमान हैं।

हम भिखारी ही सही ,
मगर राजनीति समझते हैं ,
रही अख़बार पढ़ने की बात
तो अच्‍छे-अच्‍छे लोग ,
माँग कर पढ़ते हैं,
समाचार तो समाचार ,
लोग बाग पड़ोसी से ,
अचार तक माँग लाते हैं,
रहा विचार!
तो वह बेचारा ,
महँगाई के मरघट में,
मुद्दे की तरह दफ़न हो गया है।

समाजवाद का झंडा ,
हमारे लिए कफ़न हो गया है,
कूड़ा खा रहे हैं और बदबू पी रहे हैं ,
उनका फोटो खींचकर
फिल्‍म वाले लाखों कमाते हैं
झोपड़ी की बात करते हैं
मगर जुहू में बँगला बनवाते हैं।
हमने कहा "फिल्‍म वालों से
तुम्‍हारा क्‍या झगड़ा है ?"
वो बोला-
"आपके सामने भिखारी नहीं
भूतपूर्व प्रोड्यूसर खड़ा है
बाप का बीस लाख फूँक कर
हाथ में कटोरा पकड़ा!"
हमने पाँच रुपए उसके
हाथ में रखते हुए कहा-
"हम भी फिल्‍मों में ट्राई कर रहे हैं !"
वह बोला, "आपकी रक्षा करें दुर्गा माई
आपके लिए दुआ करूँगा
लग गई तो ठीक
वरना आपके पाँच में अपने पाँच मिला कर
दस आपके हाथ पर धर दूँगा !"

Monday, October 25, 2010

आग जलती रहे (Aag Jalti Rahe) - दुष्यंत कुमार (Dushyant Kumar)

एक तीखी आँच ने

इस जन्म का हर पल छुआ,

आता हुआ दिन छुआ

हाथों से गुजरता कल छुआ

हर बीज, अँकुआ, पेड़-पौधा,

फूल-पत्ती, फल छुआ

जो मुझे छूने चली

हर उस हवा का आँचल छुआ

... प्रहर कोई भी नहीं बीता अछूता

आग के संपर्क से

दिवस, मासों और वर्षों के कड़ाहों में

मैं उबलता रहा पानी-सा

परे हर तर्क से

एक चौथाई उमर

यों खौलते बीती बिना अवकाश

सुख कहाँ

यों भाप बन-बन कर चुका,

रीता, भटकता

छानता आकाश

आह! कैसा कठिन

... कैसा पोच मेरा भाग!

आग चारों और मेरे

आग केवल भाग!

सुख नहीं यों खौलने में सुख नहीं कोई,

पर अभी जागी नहीं वह चेतना सोई,

वह, समय की प्रतीक्षा में है, जगेगी आप

ज्यों कि लहराती हुई ढकने उठाती भाप!

अभी तो यह आग जलती रहे, जलती रहे

जिंदगी यों ही कड़ाहों में उबलती रहे ।

Sunday, October 24, 2010

पुष्प की अभिलाषा (Pushp Ki Abhilasha) - माखनलाल चतुर्वेदी ( Makhanlal Chaturvedi)

चाह नहीं मैं सुरबाला के
गहनों में गूँथा जाऊँ,

चाह नहीं प्रेमी-माला में
बिंध प्यारी को ललचाऊँ,

चाह नहीं, सम्राटों के शव
पर, हे हरि, डाला जाऊँ

चाह नहीं, देवों के शिर पर,
चढ़ूँ भाग्य पर इठलाऊँ!

मुझे तोड़ लेना वनमाली!
उस पथ पर देना तुम फेंक,

मातृभूमि पर शीश चढ़ाने
जिस पथ जावें वीर अनेक।

Saturday, October 23, 2010

दशरथ विलाप (Dashrath Vilap) - भारतेंदु हरिश्चंद्र (Bhartendu Harishchandra)

कहाँ हौ ऐ हमारे राम प्यारे। किधर तुम छोड़कर मुझको सिधारे॥
बुढ़ापे में ये दु:ख भी देखना था। इसी के देखने को मैं बचा था॥
छिपाई है कहाँ सुन्दर वो मूरत। दिखा दो साँवली-सी मुझको सूरत॥
छिपे हो कौन-से परदे में बेटा। निकल आवो कि अब मरता हु बुड्ढा॥
बुढ़ापे पर दया जो मेरे करते। तो बन की ओर क्यों तुम पर धरते॥
किधर वह बन है जिसमें राम प्यारा। अजुध्या छोड़कर सूना सिधारा॥
गई संग में जनक की जो लली है। इसी में मुझको और बेकली है॥
कहेंगे क्या जनक यह हाल सुनकर। कहाँ सीता कहाँ वह बन भयंकर॥
गया लछमन भी उसके साथ-ही-साथ। तड़पता रह गया मैं मलते ही हाथ॥
मेरी आँखों की पुतली कहाँ है। बुढ़ापे की मेरी लकड़ी कहाँ है॥
कहाँ ढूँढ़ौं मुझे कोई बता दो। मेरे बच्चो को बस मुझसे मिला दो॥
लगी है आग छाती में हमारे। बुझाओ कोई उनका हाल कह के॥
मुझे सूना दिखाता है ज़माना। कहीं भी अब नहीं मेरा ठिकाना॥
अँधेरा हो गया घर हाय मेरा। हुआ क्या मेरे हाथों का खिलौना॥
मेरा धन लूटकर के कौन भागा। भरे घर को मेरे किसने उजाड़ा॥
हमारा बोलता तोता कहाँ है। अरे वह राम-सा बेटा कहाँ है॥
कमर टूटी, न बस अब उठ सकेंगे। अरे बिन राम के रो-रो मरेंगे॥
कोई कुछ हाल तो आकर के कहता। है किस बन में मेरा प्यारा कलेजा॥
हवा और धूप में कुम्हका के थककर। कहीं साये में बैठे होंगे रघुवर॥
जो डरती देखकर मट्टी का चीता। वो वन-वन फिर रही है आज सीता॥
कभी उतरी न सेजों से जमीं पर। वो फिरती है पियोदे आज दर-दर॥
न निकली जान अब तक बेहया हूँ। भला मैं राम-बिन क्यों जी रहा हूँ॥
मेरा है वज्र का लोगो कलेजा। कि इस दु:ख पर नहीं अब भी य फटता॥
मेरे जीने का दिन बस हाय बीता। कहाँ हैं राम लछमन और सीता॥
कहीं मुखड़ा तो दिखला जायँ प्यारे। न रह जाये हविस जी में हमारे॥
कहाँ हो राम मेरे राम-ए-राम। मेरे प्यारे मेरे बच्चे मेरे श्याम॥
मेरे जीवन मेरे सरबस मेरे प्रान। हुए क्या हाय मेरे राम भगवान॥
कहाँ हो राम हा प्रानों के प्यारे। यह कह दशरथ जी सुरपुर सिधारे।

Thursday, October 21, 2010

हम पंछी उन्‍मुक्‍त गगन के (Hum Panchhi Unmukt Gagan Ke) - शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ (Shivmangal Singh 'Suman')

हम पंछी उन्‍मुक्‍त गगन के
पिंजरबद्ध न गा पाऍंगे,
कनक-तीलियों से टकराकर
पुलकित पंख टूट जाऍंगे।

हम बहता जल पीनेवाले
मर जाऍंगे भूखे-प्‍यासे,
कहीं भली है कटुक निबोरी
कनक-कटोरी की मैदा से,

स्‍वर्ण-श्रृंखला के बंधन में
अपनी गति, उड़ान सब भूले,
बस सपनों में देख रहे हैं
तरू की फुनगी पर के झूले।

ऐसे थे अरमान कि उड़ते
नील गगन की सीमा पाने,
लाल किरण-सी चोंचखोल
चुगते तारक-अनार के दाने।

होती सीमाहीन क्षितिज से
इन पंखों की होड़ा-होड़ी,
या तो क्षितिज मिलन बन जाता
या तनती सॉंसों की डोरी।

नीड़ न दो, चाहे टहनी का
आश्रय छिन्‍न-भिन्‍न कर डालो,
लेकिन पंख दिए हैं, तो
आकुल उड़ान में विघ्‍न न डालों।

Wednesday, October 20, 2010

हजारों ख्वाहिशें ऐसी कि हर ख्वाहिश पे दम निकले (Hazaaron Khwaishein Aisi Ki Har Khwaish Pe Dam Nikle) - मिर्जा गालिब (Mirza Ghalib)

हजारों ख्वाहिशें ऐसी कि हर ख्वाहिश पे दम निकले
बहुत निकले मेरे अरमाँ, लेकिन फिर भी कम निकले

डरे क्यों मेरा कातिल क्या रहेगा उसकी गर्दन पर
वो खून जो चश्म-ऐ-तर से उम्र भर यूं दम-ब-दम निकले

निकलना खुल्द से आदम का सुनते आये हैं लेकिन
बहुत बे-आबरू होकर तेरे कूचे से हम निकले

भ्रम खुल जाये जालीम तेरे कामत कि दराजी का
अगर इस तुर्रा-ए-पुरपेच-ओ-खम का पेच-ओ-खम निकले

मगर लिखवाये कोई उसको खत तो हमसे लिखवाये
हुई सुबह और घर से कान पर रखकर कलम निकले

हुई इस दौर में मनसूब मुझसे बादा-आशामी
फिर आया वो जमाना जो जहाँ से जाम-ए-जम निकले

हुई जिनसे तव्वको खस्तगी की दाद पाने की
वो हमसे भी ज्यादा खस्ता-ए-तेग-ए-सितम निकले

मुहब्बत में नहीं है फ़र्क जीने और मरने का
उसी को देख कर जीते हैं जिस काफिर पे दम निकले

जरा कर जोर सिने पर कि तीर-ऐ-पुरसितम निकले
जो वो निकले तो दिल निकले, जो दिल निकले तो दम निकले

खुदा के बासते पर्दा ना काबे से उठा जालिम
कहीं ऐसा न हो याँ भी वही काफिर सनम निकले

कहाँ मयखाने का दरवाजा 'गालिब' और कहाँ वाइज़
पर इतना जानते हैं, कल वो जाता था के हम निकले

Tuesday, October 19, 2010

हिमाद्रि तुंग शृंग से (Himadri Trung Shrung Se) - जयशंकर प्रसाद (Jaishankar Prasad)

हिमाद्रि तुंग शृंग से प्रबुद्ध शुद्ध भारती
स्वयं प्रभा समुज्ज्वला स्वतंत्रता पुकारती
'अमर्त्य वीर पुत्र हो, दृढ़- प्रतिज्ञ सोच लो,
प्रशस्त पुण्य पंथ है, बढ़े चलो, बढ़े चलो!'

असंख्य कीर्ति-रश्मियाँ विकीर्ण दिव्य दाह-सी
सपूत मातृभूमि के- रुको न शूर साहसी!
अराति सैन्य सिंधु में, सुवाड़वाग्नि से जलो,
प्रवीर हो जयी बनो - बढ़े चलो, बढ़े चलो!

Saturday, October 16, 2010

कर्ण और कृष्ण का संवाद (Karna Aur Krishna Ka Samvad) - रामधारी सिंह 'दिनकर' (Ramdhari Singh 'Dinkar')

सुन-सुन कर कर्ण अधीर हुआ,
क्षण एक तनिक गंभीर हुआ,
फिर कहा "बड़ी यह माया है,
जो कुछ आपने बताया है
दिनमणि से सुनकर वही कथा
मैं भोग चुका हूँ ग्लानि व्यथा


"मैं ध्यान जन्म का धरता हूँ,
उन्मन यह सोचा करता हूँ,
कैसी होगी वह माँ कराल,
निज तन से जो शिशु को निकाल
धाराओं में धर आती है,
अथवा जीवित दफनाती है?


"सेवती मास दस तक जिसको,
पालती उदर में रख जिसको,
जीवन का अंश खिलाती है,
अन्तर का रुधिर पिलाती है
आती फिर उसको फ़ेंक कहीं,
नागिन होगी वह नारि नहीं


"हे कृष्ण आप चुप ही रहिये,
इस पर न अधिक कुछ भी कहिये
सुनना न चाहते तनिक श्रवण,
जिस माँ ने मेरा किया जनन
वह नहीं नारि कुल्पाली थी,
सर्पिणी परम विकराली थी


"पत्थर समान उसका हिय था,
सुत से समाज बढ़ कर प्रिय था
गोदी में आग लगा कर के,
मेरा कुल-वंश छिपा कर के
दुश्मन का उसने काम किया,
माताओं को बदनाम किया


"माँ का पय भी न पीया मैंने,
उलटे अभिशाप लिया मैंने
वह तो यशस्विनी बनी रही,
सबकी भौ मुझ पर तनी रही
कन्या वह रही अपरिणीता,
जो कुछ बीता, मुझ पर बीता


"मैं जाती गोत्र से दीन, हीन,
राजाओं के सम्मुख मलीन,
जब रोज अनादर पाता था,
कह 'शूद्र' पुकारा जाता था
पत्थर की छाती फटी नही,
कुन्ती तब भी तो कटी नहीं


"मैं सूत-वंश में पलता था,
अपमान अनल में जलता था,
सब देख रही थी दृश्य पृथा,
माँ की ममता पर हुई वृथा
छिप कर भी तो सुधि ले न सकी
छाया अंचल की दे न सकी


"पा पाँच तनय फूली फूली,
दिन-रात बड़े सुख में भूली
कुन्ती गौरव में चूर रही,
मुझ पतित पुत्र से दूर रही
क्या हुआ की अब अकुलाती है?
किस कारण मुझे बुलाती है?


"क्या पाँच पुत्र हो जाने पर,
सुत के धन धाम गंवाने पर
या महानाश के छाने पर,
अथवा मन के घबराने पर
नारियाँ सदय हो जाती हैं
बिछुडोँ को गले लगाती है?


"कुन्ती जिस भय से भरी रही,
तज मुझे दूर हट खड़ी रही
वह पाप अभी भी है मुझमें,
वह शाप अभी भी है मुझमें
क्या हुआ की वह डर जायेगा?
कुन्ती को काट न खायेगा?


"सहसा क्या हाल विचित्र हुआ,
मैं कैसे पुण्य-चरित्र हुआ?
कुन्ती का क्या चाहता ह्रदय,
मेरा सुख या पांडव की जय?
यह अभिनन्दन नूतन क्या है?
केशव! यह परिवर्तन क्या है?


"मैं हुआ धनुर्धर जब नामी,
सब लोग हुए हित के कामी
पर ऐसा भी था एक समय,
जब यह समाज निष्ठुर निर्दय
किंचित न स्नेह दर्शाता था,
विष-व्यंग सदा बरसाता था


"उस समय सुअंक लगा कर के,
अंचल के तले छिपा कर के
चुम्बन से कौन मुझे भर कर,
ताड़ना-ताप लेती थी हर?
राधा को छोड़ भजूं किसको,
जननी है वही, तजूं किसको?


"हे कृष्ण ! ज़रा यह भी सुनिए,
सच है की झूठ मन में गुनिये
धूलों में मैं था पडा हुआ,
किसका सनेह पा बड़ा हुआ?
किसने मुझको सम्मान दिया,
नृपता दे महिमावान किया?


"अपना विकास अवरुद्ध देख,
सारे समाज को क्रुद्ध देख
भीतर जब टूट चुका था मन,
आ गया अचानक दुर्योधन
निश्छल पवित्र अनुराग लिए,
मेरा समस्त सौभाग्य लिए


"कुन्ती ने केवल जन्म दिया,
राधा ने माँ का कर्म किया
पर कहते जिसे असल जीवन,
देने आया वह दुर्योधन
वह नहीं भिन्न माता से है
बढ़ कर सोदर भ्राता से है


"राजा रंक से बना कर के,
यश, मान, मुकुट पहना कर के
बांहों में मुझे उठा कर के,
सामने जगत के ला करके
करतब क्या क्या न किया उसने
मुझको नव-जन्म दिया उसने


"है ऋणी कर्ण का रोम-रोम,
जानते सत्य यह सूर्य-सोम
तन मन धन दुर्योधन का है,
यह जीवन दुर्योधन का है
सुर पुर से भी मुख मोडूँगा,
केशव ! मैं उसे न छोडूंगा


"सच है मेरी है आस उसे,
मुझ पर अटूट विश्वास उसे
हाँ सच है मेरे ही बल पर,
ठाना है उसने महासमर
पर मैं कैसा पापी हूँगा?
दुर्योधन को धोखा दूँगा?


"रह साथ सदा खेला खाया,
सौभाग्य-सुयश उससे पाया
अब जब विपत्ति आने को है,
घनघोर प्रलय छाने को है
तज उसे भाग यदि जाऊंगा
कायर, कृतघ्न कहलाऊँगा


"कुन्ती का मैं भी एक तनय,
जिसको होगा इसका प्रत्यय
संसार मुझे धिक्कारेगा,
मन में वह यही विचारेगा
फिर गया तुरत जब राज्य मिला,
यह कर्ण बड़ा पापी निकला


"मैं ही न सहूंगा विषम डंक,
अर्जुन पर भी होगा कलंक
सब लोग कहेंगे डर कर ही,
अर्जुन ने अद्भुत नीति गही
चल चाल कर्ण को फोड़ लिया
सम्बन्ध अनोखा जोड़ लिया


"कोई भी कहीं न चूकेगा,
सारा जग मुझ पर थूकेगा
तप त्याग शील, जप योग दान,
मेरे होंगे मिट्टी समान
लोभी लालची कहाऊँगा
किसको क्या मुख दिखलाऊँगा?


"जो आज आप कह रहे आर्य,
कुन्ती के मुख से कृपाचार्य
सुन वही हुए लज्जित होते,
हम क्यों रण को सज्जित होते
मिलता न कर्ण दुर्योधन को,
पांडव न कभी जाते वन को


"लेकिन नौका तट छोड़ चली,
कुछ पता नहीं किस ओर चली
यह बीच नदी की धारा है,
सूझता न कूल-किनारा है
ले लील भले यह धार मुझे,
लौटना नहीं स्वीकार मुझे


"धर्माधिराज का ज्येष्ठ बनूँ,
भारत में सबसे श्रेष्ठ बनूँ?
कुल की पोशाक पहन कर के,
सिर उठा चलूँ कुछ तन कर के?
इस झूठ-मूठ में रस क्या है?
केशव ! यह सुयश - सुयश क्या है?


"सिर पर कुलीनता का टीका,
भीतर जीवन का रस फीका
अपना न नाम जो ले सकते,
परिचय न तेज से दे सकते
ऐसे भी कुछ नर होते हैं
कुल को खाते औ' खोते हैं


"विक्रमी पुरुष लेकिन सिर पर,
चलता ना छत्र पुरखों का धर.
अपना बल-तेज जगाता है,
सम्मान जगत से पाता है.
सब देख उसे ललचाते हैं,
कर विविध यत्न अपनाते हैं


"कुल-गोत्र नही साधन मेरा,
पुरुषार्थ एक बस धन मेरा.
कुल ने तो मुझको फेंक दिया,
मैने हिम्मत से काम लिया
अब वंश चकित भरमाया है,
खुद मुझे ढूँडने आया है.


"लेकिन मैं लौट चलूँगा क्या?
अपने प्रण से विचरूँगा क्या?
रण मे कुरूपति का विजय वरण,
या पार्थ हाथ कर्ण का मरण,
हे कृष्ण यही मति मेरी है,
तीसरी नही गति मेरी है.


"मैत्री की बड़ी सुखद छाया,
शीतल हो जाती है काया,
धिक्कार-योग्य होगा वह नर,
जो पाकर भी ऐसा तरुवर,
हो अलग खड़ा कटवाता है
खुद आप नहीं कट जाता है.


"जिस नर की बाह गही मैने,
जिस तरु की छाँह गहि मैने,
उस पर न वार चलने दूँगा,
कैसे कुठार चलने दूँगा,
जीते जी उसे बचाऊँगा,
या आप स्वयं कट जाऊँगा,


"मित्रता बड़ा अनमोल रतन,
कब उसे तोल सकता है धन?
धरती की तो है क्या बिसात?
आ जाय अगर बैकुंठ हाथ.
उसको भी न्योछावर कर दूँ,
कुरूपति के चरणों में धर दूँ.


"सिर लिए स्कंध पर चलता हूँ,
उस दिन के लिए मचलता हूँ,
यदि चले वज्र दुर्योधन पर,
ले लूँ बढ़कर अपने ऊपर.
कटवा दूँ उसके लिए गला,
चाहिए मुझे क्या और भला?


"सम्राट बनेंगे धर्मराज,
या पाएगा कुरूरज ताज,
लड़ना भर मेरा कम रहा,
दुर्योधन का संग्राम रहा,
मुझको न कहीं कुछ पाना है,
केवल ऋण मात्र चुकाना है.


"कुरूराज्य चाहता मैं कब हूँ?
साम्राज्य चाहता मैं कब हूँ?
क्या नहीं आपने भी जाना?
मुझको न आज तक पहचाना?
जीवन का मूल्य समझता हूँ,
धन को मैं धूल समझता हूँ.


"धनराशि जोगना लक्ष्य नहीं,
साम्राज्य भोगना लक्ष्य नहीं.
भुजबल से कर संसार विजय,
अगणित समृद्धियों का सन्चय,
दे दिया मित्र दुर्योधन को,
तृष्णा छू भी ना सकी मन को.


"वैभव विलास की चाह नहीं,
अपनी कोई परवाह नहीं,
बस यही चाहता हूँ केवल,
दान की देव सरिता निर्मल,
करतल से झरती रहे सदा,
निर्धन को भरती रहे सदा.

"तुच्छ है राज्य क्या है केशव?
पाता क्या नर कर प्राप्त विभव?
चिंता प्रभूत, अत्यल्प हास,
कुछ चाकचिक्य, कुछ पल विलास,
पर वह भी यहीं गवाना है,
कुछ साथ नही ले जाना है.


"मुझसे मनुष्य जो होते हैं,
कंचन का भार न ढोते हैं,
पाते हैं धन बिखराने को,
लाते हैं रतन लुटाने को,
जग से न कभी कुछ लेते हैं,
दान ही हृदय का देते हैं.


"प्रासादों के कनकाभ शिखर,
होते कबूतरों के ही घर,
महलों में गरुड़ ना होता है,
कंचन पर कभी न सोता है.
रहता वह कहीं पहाड़ों में,
शैलों की फटी दरारों में.


"होकर सुख-समृद्धि के अधीन,
मानव होता निज तप क्षीण,
सत्ता किरीट मणिमय आसन,
करते मनुष्य का तेज हरण.
नर विभव हेतु लालचाता है,
पर वही मनुज को खाता है.


"चाँदनी पुष्प-छाया मे पल,
नर भले बने सुमधुर कोमल,
पर अमृत क्लेश का पिए बिना,
आताप अंधड़ में जिए बिना,
वह पुरुष नही कहला सकता,
विघ्नों को नही हिला सकता.


"उड़ते जो झंझावतों में,
पीते सो वारी प्रपातो में,
सारा आकाश अयन जिनका,
विषधर भुजंग भोजन जिनका,
वे ही फानिबंध छुड़ाते हैं,
धरती का हृदय जुड़ाते हैं.


"मैं गरुड़ कृष्ण मै पक्षिराज,
सिर पर ना चाहिए मुझे ताज.
दुर्योधन पर है विपद घोर,
सकता न किसी विधि उसे छोड़,
रण-खेत पाटना है मुझको,
अहिपाश काटना है मुझको.


"संग्राम सिंधु लहराता है,
सामने प्रलय घहराता है,
रह रह कर भुजा फड़कती है,
बिजली-सी नसें कड़कतीं हैं,
चाहता तुरत मैं कूद पडू,
जीतूं की समर मे डूब मरूं.


"अब देर नही कीजै केशव,
अवसेर नही कीजै केशव.
धनु की डोरी तन जाने दें,
संग्राम तुरत ठन जाने दें,
तांडवी तेज लहराएगा,
संसार ज्योति कुछ पाएगा.


"हाँ, एक विनय है मधुसूदन,
मेरी यह जन्मकथा गोपन,
मत कभी युधिष्ठिर से कहिए,
जैसे हो इसे छिपा रहिए,
वे इसे जान यदि पाएँगे,
सिंहासन को ठुकराएँगे.


"साम्राज्य न कभी स्वयं लेंगे,
सारी संपत्ति मुझे देंगे.
मैं भी ना उसे रख पाऊँगा,
दुर्योधन को दे जाऊँगा.
पांडव वंचित रह जाएँगे,
दुख से न छूट वे पाएँगे.


"अच्छा अब चला प्रमाण आर्य,
हो सिद्ध समर के शीघ्र कार्य.
रण मे ही अब दर्शन होंगे,
शार से चरण:स्पर्शन होंगे.
जय हो दिनेश नभ में विहरें,
भूतल मे दिव्य प्रकाश भरें."


रथ से रधेय उतार आया,
हरि के मन मे विस्मय छाया,
बोले कि "वीर शत बार धन्य,
तुझसा न मित्र कोई अनन्य,
तू कुरूपति का ही नही प्राण,
नरता का है भूषण महान."

Friday, October 15, 2010

शीशों का मसीहा कोई नहीं क्या आस लगाए बैठे हो (Sheeshon Ka Maseeha Koi Nahin Kya Aas Lagaye Baithe Ho) - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ (Faiz Ahmed Faiz)

मोती हो कि शीशा, जाम कि दुर
जो टूट गया सो टूट गया
कब अश्कों से जुड़ सकता है
जो टूट गया, सो छूट गया

तुम नाहक टुकड़े चुन चुन कर
दामन में छुपाए बैठे हो
शीशों का मसीहा कोई नहीं
क्या आस लगाए बैठे हो

शायद कि इन्हीं टुकड़ों में कहीं
वो साग़रे-दिल है जिसमें कभी
सद नाज़ से उतरा करती थी
सहबाए-गमें-जानां की परी

फिर दुनिया वालों ने तुम से
ये सागर लेकर फोड़ दिया
जो मय थी बहा दी मिट्टी में
मेहमान का शहपर तोड़ दिया

ये रंगी रेजे हैं शाहिद
उन शोख बिल्लूरी सपनों के
तुम मस्त जवानी में जिन से
खल्वत को सजाया करते थे

नादारी, दफ्तर, भूख और गम
इन सपनों से टकराते रहे
बेरहम था चौमुख पथराओ
ये कांच के ढ़ांचे क्या करते

या शायद इन जर्रों में कहीं
मोती है तुम्हारी इज्जत का
वो जिस से तुम्हारे इज्ज़ पे भी
शमशादक़दों ने नाज़ किया

उस माल की धुन में फिरते थे
ताजिर भी बहुत रहजन भी बहुत
है चोरनगर, यां मुफलिस की
गर जान बची तो आन गई

ये सागर शीशे, लालो- गुहर
सालम हो तो कीमत पाते हैं
यूँ टुकड़े टुकड़े हों तो फकत
चुभते हैं, लहू रुलवाते हैं


तुम नाहक टुकड़े चुन चुन कर
दामन में छुपाए बैठे हो
शीशों का मसीहा कोई नहीं
क्या आस लगाए बैठे हो

यादों के गरेबानों के रफ़ू
पर दिल की गुज़र कब होती है
इक बखिया उधेड़ा, एक सिया
यूँ उम्र बसर कब होती है

इस कारगहे-हस्ती में जहाँ
ये सागर शीशे ढ़लते हैं
हर शै का बदल मिल सकता है
सब दामन पुर हो सकते हैं

जो हाथ बढ़े यावर है यहाँ
जो आंख उठे वो बख़्तावर
यां धन दौलत का अंत नहीं
हों घात में डाकू लाख यहाँ

कब लूट झपट में हस्ती की
दुकानें खाली होती हैं
यां परबत परबत हीरे हैं
या सागर सागर मोती है

कुछ लोग हैं जो इस दौलत पर
पर्दे लटकाया फिरते हैं
हर परबत को हर सागर को
नीलाम चढ़ाते फिरते हैं

कुछ वो भी हैं जो लड़ भिड़ कर
ये पर्दे नोच गिराते हैं
हस्ती के उठाईगीरों की
हर चाल उलझाए जाते हैं

इन दोनों में रन पड़ता है
नित बस्ती बस्ती नगर नगर
हर बसते घर के सीने में
हर चलती राह के माथे पर

ये कालक भरते फिरते हैं
वो जोत जगाते रहते हैं
ये आग लगाते फिरते हैं
वो आग बुझाते रहते हैं

सब सागर शीशे, लालो-गुहर
इस बाज़ी में बिद जाते हैं
उठो, सब ख़ाली हाथों को
इस रन से बुलावे आते हैं

Thursday, October 14, 2010

हैफ हम जिसपे की तैयार थे मर जाने को (Haif Hum Jispe Ki Tayaar The Mar Jane Ko) - राम प्रसाद 'बिस्मिल' (Ram Prasad 'Bismil')

हैफ हम जिसपे की तैयार थे मर जाने को
जीते जी हमने छुड़ाया उसी कशाने को
क्या ना था और बहाना कोई तडपाने को
आसमां क्या यही बाकी था सितम ढाने को
लाके गुरबत में जो रखा हमें तरसाने को

फिर ना गुलशन में हमें लायेगा शायद कभी
याद आयेगा किसे ये दिल-ऐ-नाशाद कभी
क्यों सुनेगा तु हमारी कोई फरियाद कभी
हम भी इस बाग में थे कैद से आजाद कभी
अब तो काहे को मिलेगी ये हवा खाने को

दिल फिदा करते हैं क़ुरबान जिगर करते हैं
पास जो कुछ है वो माता की नज़र करते हैं
खाना वीरान कहाँ देखिए घर करते हैं
खुश रहो अहल-ए-वतन, हम तो सफ़र करते हैं
जाके आबाद करेंगे किसी वीराने को

ना मयस्सर हुआ राहत से कभिइ मेल हमें
जान पर खेल के भाया ना कोइ खेल हमें
एक दिन क्या भी ना मंज़ूर हुआ बेल हमें
याद आएगा अलिपुर का बहुत जेल हमें
लोग तो भूल गये होंगे उस अफ़साने को

अंडमान खाक तेरी क्यूँ ना हो दिल में नाज़ां
छके चरणों को जो पिंगले के हुई है ज़ीशान
मरतबा इतना बढ़े तेरी भी तक़दीर कहाँ
आते आते जो रहे ‘बाल तिलक’ भी मेहमां
‘मंडाले’ को ही यह आइज़ाज़ मिला पाने को

बात तो जब है की इस बात की ज़िद्दे थानें
देश के वास्ते क़ुरबान करें हम जानें
लाख समझाए कोइ, उसकी ना हरगिज़ मानें
बहते हुए ख़ून में अपना ना ग़रेबान सानें
नासेहा, आग लगे इस तेरे समझाने को

अपनी क़िस्मत में आज़ाल से ही सितम रक्खा था
रंज रक्खा था, मेहान रक्खा था, गम रक्खा था
किसको परवाह थी और किस्में ये दम रक्खा था
हमने जब वादी-ए-ग़ुरबत में क़दम रक्खा था
दूर तक याद-ए-वतन आई थी समझाने को

हम भी आराम उठा सकते थे घर पर रह कर
हम भी माँ बाप के पाले थे, बड़े दुःख सह कर
वक़्त-ए-रुख्ह्सत उन्हें इतना भी ना आए कह कर
गोद में आँसू जो टपके कभी रुख्ह से बह कर
तिफ्ल उनको ही समझ लेना जी बहलाने को

देश सेवा का ही बहता है लहु नस-नस में
हम तो खा बैंटे हैं चित्तोड़ के गढ़ की कसमें
सरफरोशी की अदा होती हैं यों ही रसमें
भाले-ऐ-खंजर से गले मिलाते हैं सब आपस में
बहानों, तैयार चिता में हो जल जाने को

अब तो हम डाल चुके अपने गले में झोली
एक होती है फ़क़ीरों की हमेशा बोली
खून में फाग रचाएगी हमारी टोली
जब से बंगाल में खेले हैं कन्हैया होली
कोइ उस दिन से नहीं पूछता बरसाने को

अपना कुछ गम नहीं पर हमको ख़याल आता है
मादार-ए-हिंद पर कब तक ज्वाल आता है
‘हरदयाल’ आता है ‘युरोप’ से ना ‘लाल’ आता है
देश के हाल पे रह रह मलाल आता है
मुंतज़ीर रहते हैं हम खाक में मिल जाने को

नौजवानों, जो तबीयत में तुम्हारी ख़टके
याद कर लेना हमें भी कभी भूल-ए-भटके
आप के ज़ुज़वे बदन होये जुदा कट-कटके
और साद चाक हो माता का कलेजा फटके
पर ना माथे पे शिकन आए क़सम खाने को

देखें कब तक ये असीरा-ए-मुसीबत छूटें
मादार-ए-हिंद के कब भाग खुलें या फुटें
‘गाँधी अफ्रीका की बाज़ारों में सदके कूटें
और हम चैन से दिन रात बहारें लुटें
क्यूँ ना तरज़ीह दें इस जीने पे मार जाने को

कोई माता की ऊंमीदों पे ना ड़ाले पानी
जिन्दगी भर को हमें भेज के काला पानी
मुँह में जल्लाद हुए जाते हैं छले पानी
अब के खंजर का पिला करके दुआ ले पानी
भरने क्यों जाये कहीं ऊमर के पैमाने को

मयकदा किसका है ये जाम-ए-सुबु किसका है
वार किसका है जवानों ये गुलु किसका है
जो बहे कौम के खातिर वो लहु किसका है
आसमां साफ बता दे तु अदु किसका है
क्यों नये रंग बदलता है तु तड़पाने को

दर्दमंदों से मुसीबत की हलावत पुछो
मरने वालों से जरा लुत्फ-ए-शहादत पुछो
चश्म-ऐ-खुश्ताख से कुछ दीद की हसरत पुछो
कुश्त-ए-नाज से ठोकर की कयामत पुछो
सोज कहते हैं किसे पुछ लो परवाने को

नौजवानों यही मौका है उठो खुल खेलो
और सर पर जो बला आये खुशी से झेलो
कौंम के नाम पे सदके पे जवानी दे दो
फिर मिलेगी ना ये माता की दुआएं ले लो
देखे कौन आता है ईर्शाथ बजा लाने को

Wednesday, October 13, 2010

न चाहूँ मान (Na Chahoon Maan) - राम प्रसाद 'बिस्मिल' (Ram Prasad 'Bismil')

न चाहूँ मान दुनिया में, न चाहूँ स्वर्ग को जाना
मुझे वर दे यही माता रहूँ भारत पे दीवाना

करुँ मैं कौम की सेवा पडे़ चाहे करोड़ों दुख
अगर फ़िर जन्म लूँ आकर तो भारत में ही हो आना

लगा रहे प्रेम हिन्दी में, पढूँ हिन्दी लिखुँ हिन्दी
चलन हिन्दी चलूँ, हिन्दी पहरना, ओढना खाना

भवन में रोशनी मेरे रहे हिन्दी चिरागों की
स्वदेशी ही रहे बाजा, बजाना, राग का गाना

लगें इस देश के ही अर्थ मेरे धर्म, विद्या, धन
करुँ मैं प्राण तक अर्पण यही प्रण सत्य है ठाना

नहीं कुछ गैर-मुमकिन है जो चाहो दिल से "बिस्मिल" तुम
उठा लो देश हाथों पर न समझो अपना बेगाना

Tuesday, October 12, 2010

जीवन की आपाधापी में (Jeevan Ki Aapadhapi Mein) - हरिवंश राय 'बच्चन' (Harivansh Rai 'Bachchan')

जीवन की आपाधापी में कब वक़्त मिला
कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूँ
जो किया, कहा, माना उसमें क्या बुरा भला।

जिस दिन मेरी चेतना जगी मैंने देखा
मैं खड़ा हुआ हूँ इस दुनिया के मेले में,
हर एक यहाँ पर एक भुलाने में भूला
हर एक लगा है अपनी अपनी दे-ले में
कुछ देर रहा हक्का-बक्का, भौचक्का-सा,
आ गया कहाँ, क्या करूँ यहाँ, जाऊँ किस जा?
फिर एक तरफ से आया ही तो धक्का-सा
मैंने भी बहना शुरू किया उस रेले में,
क्या बाहर की ठेला-पेली ही कुछ कम थी,
जो भीतर भी भावों का ऊहापोह मचा,
जो किया, उसी को करने की मजबूरी थी,
जो कहा, वही मन के अंदर से उबल चला,
जीवन की आपाधापी में कब वक़्त मिला
कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूँ
जो किया, कहा, माना उसमें क्या बुरा भला।

मेला जितना भड़कीला रंग-रंगीला था,
मानस के अन्दर उतनी ही कमज़ोरी थी,
जितना ज़्यादा संचित करने की ख़्वाहिश थी,
उतनी ही छोटी अपने कर की झोरी थी,
जितनी ही बिरमे रहने की थी अभिलाषा,
उतना ही रेले तेज ढकेले जाते थे,
क्रय-विक्रय तो ठण्ढे दिल से हो सकता है,
यह तो भागा-भागी की छीना-छोरी थी;
अब मुझसे पूछा जाता है क्या बतलाऊँ
क्या मान अकिंचन बिखराता पथ पर आया,
वह कौन रतन अनमोल मिला ऐसा मुझको,
जिस पर अपना मन प्राण निछावर कर आया,
यह थी तकदीरी बात मुझे गुण दोष न दो
जिसको समझा था सोना, वह मिट्टी निकली,
जिसको समझा था आँसू, वह मोती निकला।
जीवन की आपाधापी में कब वक़्त मिला
कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूँ
जो किया, कहा, माना उसमें क्या बुरा भला।

मैं कितना ही भूलूँ, भटकूँ या भरमाऊँ,
है एक कहीं मंज़िल जो मुझे बुलाती है,
कितने ही मेरे पाँव पड़े ऊँचे-नीचे,
प्रतिपल वह मेरे पास चली ही आती है,
मुझ पर विधि का आभार बहुत-सी बातों का।
पर मैं कृतज्ञ उसका इस पर सबसे ज़्यादा -
नभ ओले बरसाए, धरती शोले उगले,
अनवरत समय की चक्की चलती जाती है,
मैं जहाँ खड़ा था कल उस थल पर आज नहीं,
कल इसी जगह पर पाना मुझको मुश्किल है,
ले मापदंड जिसको परिवर्तित कर देतीं
केवल छूकर ही देश-काल की सीमाएँ
जग दे मुझपर फैसला उसे जैसा भाए
लेकिन मैं तो बेरोक सफ़र में जीवन के
इस एक और पहलू से होकर निकल चला।
जीवन की आपाधापी में कब वक़्त मिला
कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूँ
जो किया, कहा, माना उसमें क्या बुरा भला।

Monday, October 11, 2010

को‌ई गाता मैं सो जाता (Koi Gaata Main So Jaata) - हरिवंश राय 'बच्चन' (Harivansh Rai 'Bachchan')

संस्रिति के विस्तृत सागर में
सपनो की नौका के अंदर
दुख सुख कि लहरों मे उठ गिर
बहता जाता, मैं सो जाता ।

आँखों में भरकर प्यार अमर
आशीष हथेली में भरकर
को‌ई मेरा सिर गोदी में रख
सहलाता, मैं सो जाता ।

मेरे जीवन का खाराजल
मेरे जीवन का हालाहल
को‌ई अपने स्वर में मधुमय कर
बरसाता मैं सो जाता ।

को‌ई गाता मैं सो जाता
मैं सो जाता
मैं सो जाता

Sunday, October 10, 2010

गिरिराज ( Giriraj) - सोहनलाल द्विवेदी (Sohanlal Dwivedi)

यह है भारत का शुभ्र मुकुट
यह है भारत का उच्च भाल,
सामने अचल जो खड़ा हुआ
हिमगिरि विशाल, गिरिवर विशाल!

कितना उज्ज्वल, कितना शीतल
कितना सुन्दर इसका स्वरूप?
है चूम रहा गगनांगन को
इसका उन्नत मस्तक अनूप!

है मानसरोवर यहीं कहीं
जिसमें मोती चुगते मराल,
हैं यहीं कहीं कैलास शिखर
जिसमें रहते शंकर कृपाल!

युग युग से यह है अचल खड़ा
बनकर स्वदेश का शुभ्र छत्र!
इसके अँचल में बहती हैं
गंगा सजकर नवफूल पत्र!

इस जगती में जितने गिरि हैं
सब झुक करते इसको प्रणाम,
गिरिराज यही, नगराज यही
जननी का गौरव गर्व–धाम!

इस पार हमारा भारत है,
उस पार चीन–जापान देश
मध्यस्थ खड़ा है दोनों में
एशिया खंड का यह नगेश!

Saturday, October 9, 2010

यह है भारत देश हमारा ( Yeh Hai Bharat Desh Hamara) - सुब्रह्मण्यम भारती ( Subrahmanyam Bharti)

चमक रहा उत्तुंग हिमालय, यह नगराज हमारा ही है।
जोड़ नहीं धरती पर जिसका, वह नगराज हमारा ही है।
नदी हमारी ही है गंगा, प्लावित करती मधुरस धारा,
बहती है क्या कहीं और भी, ऎसी पावन कल-कल धारा?

सम्मानित जो सकल विश्व में, महिमा जिनकी बहुत रही है
अमर ग्रन्थ वे सभी हमारे, उपनिषदों का देश यही है।
गाएँगे यश ह्म सब इसका, यह है स्वर्णिम देश हमारा,
आगे कौन जगत में हमसे, यह है भारत देश हमारा।


यह है भारत देश हमारा, महारथी कई हुए जहाँ पर,
यह है देश मही का स्वर्णिम, ऋषियों ने तप किए जहाँ पर,
यह है देश जहाँ नारद के, गूँजे मधुमय गान कभी थे,
यह है देश जहाँ पर बनते, सर्वोत्तम सामान सभी थे।

यह है देश हमारा भारत, पूर्ण ज्ञान का शुभ्र निकेतन,
यह है देश जहाँ पर बरसी, बुद्धदेव की करुणा चेतन,
है महान, अति भव्य पुरातन, गूँजेगा यह गान हमारा,
है क्या हम-सा कोई जग में, यह है भारत देश हमारा।


विघ्नों का दल चढ़ आए तो, उन्हें देख भयभीत न होंगे,
अब न रहेंगे दलित-दीन हम, कहीं किसी से हीन न होंगे,
क्षुद्र स्वार्थ की ख़ातिर हम तो, कभी न ओछे कर्म करेंगे,
पुण्यभूमि यह भारत माता, जग की हम तो भीख न लेंगे।

मिसरी-मधु-मेवा-फल सारे, देती हमको सदा यही है,
कदली, चावल, अन्न विविध अरु क्षीर सुधामय लुटा रही है,
आर्य-भूमि उत्कर्षमयी यह, गूँजेगा यह गान हमारा,
कौन करेगा समता इसकी, महिमामय यह देश हमारा।

Tuesday, September 21, 2010

राणा प्रताप की तलवार (Rana Pratap Ki Talwar) - श्यामनारायण पाण्डेय (Shyamnarayan Pandey)

चढ़ चेतक पर तलवार उठा,
रखता था भूतल पानी को।
राणा प्रताप सिर काट काट,
करता था सफल जवानी को॥

कलकल बहती थी रणगंगा,
अरिदल को डूब नहाने को।
तलवार वीर की नाव बनी,
चटपट उस पार लगाने को॥

वैरी दल को ललकार गिरी,
वह नागिन सी फुफकार गिरी।
था शोर मौत से बचो बचो,
तलवार गिरी तलवार गिरी॥

पैदल, हयदल, गजदल में,
छप छप करती वह निकल गई।
क्षण कहाँ गई कुछ पता न फिर,
देखो चम-चम वह निकल गई॥

क्षण इधर गई क्षण उधर गई,
क्षण चढ़ी बाढ़ सी उतर गई।
था प्रलय चमकती जिधर गई,
क्षण शोर हो गया किधर गई॥

लहराती थी सिर काट काट,
बलखाती थी भू पाट पाट।
बिखराती अवयव बाट बाट,
तनती थी लोहू चाट चाट॥

क्षण भीषण हलचल मचा मचा,
राणा कर की तलवार बढ़ी।
था शोर रक्त पीने को यह,
रण-चंडी जीभ पसार बढ़ी॥

Monday, September 20, 2010

खूनी हस्‍ताक्षर ( Khooni Hastakshar) - गोपालप्रसाद व्यास (Gopalprasad Vyas)

वह खून कहो किस मतलब का
जिसमें उबाल का नाम नहीं।
वह खून कहो किस मतलब का
आ सके देश के काम नहीं।

वह खून कहो किस मतलब का
जिसमें जीवन, न रवानी है!
जो परवश होकर बहता है,
वह खून नहीं, पानी है!

उस दिन लोगों ने सही-सही
खून की कीमत पहचानी थी।
जिस दिन सुभाष ने बर्मा में
मॉंगी उनसे कुरबानी थी।

बोले, "स्वतंत्रता की खातिर
बलिदान तुम्हें करना होगा।
तुम बहुत जी चुके जग में,
लेकिन आगे मरना होगा।

आज़ादी के चरणें में जो,
जयमाल चढ़ाई जाएगी।
वह सुनो, तुम्हारे शीशों के
फूलों से गूँथी जाएगी।

आजादी का संग्राम कहीं
पैसे पर खेला जाता है?
यह शीश कटाने का सौदा
नंगे सर झेला जाता है"

यूँ कहते-कहते वक्ता की
आंखों में खून उतर आया!
मुख रक्त-वर्ण हो दमक उठा
दमकी उनकी रक्तिम काया!

आजानु-बाहु ऊँची करके,
वे बोले, "रक्त मुझे देना।
इसके बदले भारत की
आज़ादी तुम मुझसे लेना।"

हो गई सभा में उथल-पुथल,
सीने में दिल न समाते थे।
स्वर इनकलाब के नारों के
कोसों तक छाए जाते थे।

“हम देंगे-देंगे खून”
शब्द बस यही सुनाई देते थे।
रण में जाने को युवक खड़े
तैयार दिखाई देते थे।

बोले सुभाष, "इस तरह नहीं,
बातों से मतलब सरता है।
लो, यह कागज़, है कौन यहॉं
आकर हस्ताक्षर करता है?

इसको भरनेवाले जन को
सर्वस्व-समर्पण काना है।
अपना तन-मन-धन-जन-जीवन
माता को अर्पण करना है।

पर यह साधारण पत्र नहीं,
आज़ादी का परवाना है।
इस पर तुमको अपने तन का
कुछ उज्जवल रक्त गिराना है!

वह आगे आए जिसके तन में
खून भारतीय बहता हो।
वह आगे आए जो अपने को
हिंदुस्तानी कहता हो!

वह आगे आए, जो इस पर
खूनी हस्ताक्षर करता हो!
मैं कफ़न बढ़ाता हूँ, आए
जो इसको हँसकर लेता हो!"

सारी जनता हुंकार उठी-
हम आते हैं, हम आते हैं!
माता के चरणों में यह लो,
हम अपना रक्त चढाते हैं!

साहस से बढ़े युबक उस दिन,
देखा, बढ़ते ही आते थे!
चाकू-छुरी कटारियों से,
वे अपना रक्त गिराते थे!

फिर उस रक्त की स्याही में,
वे अपनी कलम डुबाते थे!
आज़ादी के परवाने पर
हस्ताक्षर करते जाते थे!

उस दिन तारों ने देखा था
हिंदुस्तानी विश्वास नया।
जब लिक्खा महा रणवीरों ने
ख़ूँ से अपना इतिहास नया।

Sunday, September 19, 2010

है प्रीत जहाँ की रीत सदा ( Hai Preet Jahan Ki Reet Sada) - इंदीवर (Indeevar)

जब ज़ीरो दिया मेरे भारत ने, दुनिया को तब गिनती आई
तारों की भाषा भारत ने, दुनिया को पहले सिखलाई

देता ना दशमलव भारत तो, यूँ चाँद पे जाना मुश्किल था
धरती और चाँद की दूरी का, अंदाज़ लगाना मुश्किल था

सभ्यता जहाँ पहले आई, पहले जनमी है जहाँ पे कला
अपना भारत वो भारत है, जिसके पीछे संसार चला
संसार चला और आगे बढ़ा, ज्यूँ आगे बढ़ा, बढ़ता ही गया
भगवान करे ये और बढ़े, बढ़ता ही रहे और फूले-फले

है प्रीत जहाँ की रीत सदा, मैं गीत वहाँ के गाता हूँ
भारत का रहने वाला हूँ, भारत की बात सुनाता हूँ

काले-गोरे का भेद नहीं, हर दिल से हमारा नाता है
कुछ और न आता हो हमको, हमें प्यार निभाना आता है
जिसे मान चुकी सारी दुनिया, मैं बात वही दोहराता हूँ
भारत का रहने वाला हूँ, भारत की बात सुनाता हूँ

जीते हो किसीने देश तो क्या, हमने तो दिलों को जीता है
जहाँ राम अभी तक है नर में, नारी में अभी तक सीता है
इतने पावन हैं लोग जहाँ, मैं नित-नित शीश झुकाता हूँ
भारत का रहने वाला हूँ, भारत की बात सुनाता हूँ

इतनी ममता नदियों को भी, जहाँ माता कहके बुलाते है
इतना आदर इन्सान तो क्या, पत्थर भी पूजे जातें है
उस धरती पे मैंने जन्म लिया, ये सोच के मैं इतराता हूँ
भारत का रहने वाला हूँ, भारत की बात सुनाता हूँ

Saturday, September 18, 2010

नेता जी लगे मुस्कुराने ( Neta Ji Lage Muskurane) - अशोक चक्रधर ( Ashok Chakradhar)

एक महा विद्यालय में
नए विभाग के लिए
नया भवन बनवाया गया,
उसके उद्घाटनार्थ
विद्यालय के एक पुराने छात्र
लेकिन नए नेता को
बुलवाया गया।

अध्यापकों ने
कार के दरवाज़े खोले
नेती जी उतरते ही बोले—
यहां तर गईं
कितनी ही पीढ़ियां,
अहा !
वही पुरानी सीढ़ियां !
वही मैदान
वही पुराने वृक्ष,
वही कार्यालय
वही पुराने कक्ष।
वही पुरानी खिड़की
वही जाली,
अहा, देखिए
वही पुराना माली।

मंडरा रहे थे
यादों के धुंधलके
थोड़ा और आगे गए चल के—
वही पुरानी
चिमगादड़ों की साउण्ड,
वही घंटा
वही पुराना प्लेग्राउण्ड।
छात्रों में
वही पुरानी बदहवासी,
अहा, वही पुराना चपरासी।
नमस्कार, नमस्कार !
अब आया हॉस्टल का द्वार—
हॉस्टल में वही कमरे
वही पुराना ख़ानसामा,
वही धमाचौकड़ी
वही पुराना हंगामा।
नेता जी पर
पुरानी स्मृतियां छा रही थीं,
तभी पाया
कि एक कमरे से
कुछ ज़्यादा ही
आवाज़ें आ रही थीं।
उन्होंने दरवाजा खटखटाया,
लड़के ने खोला
पर घबराया।
क्योंकि अंदर एक कन्या थी,
वल्कल-वसन-वन्या थी।
दिल रह गया दहल के,
लेकिन बोला संभल के—
आइए सर !
मेरा नाम मदन है,
इससे मिलिए
मेरी कज़न है।

नेता जी लगे मुस्कुराने

Friday, September 17, 2010

पृथ्वीराज रासो ( Prithviraj Raso) - चंदबरदाई ( Chandbardai)

पद्मसेन कूँवर सुघर ताघर नारि सुजान।
ता उर इक पुत्री प्रकट, मनहुँ कला ससभान॥

मनहुँ कला ससभान कला सोलह सो बन्निय।
बाल वैस, ससि ता समीप अम्रित रस पिन्निय॥

बिगसि कमल-स्रिग, भ्रमर, बेनु, खंजन, म्रिग लुट्टिय।
हीर, कीर, अरु बिंब मोति, नष सिष अहि घुट्टिय॥

छप्पति गयंद हरि हंस गति, बिह बनाय संचै सँचिय।
पदमिनिय रूप पद्मावतिय, मनहुँ काम-कामिनि रचिय॥

मनहुँ काम-कामिनि रचिय, रचिय रूप की रास।
पसु पंछी मृग मोहिनी, सुर नर, मुनियर पास॥

सामुद्रिक लच्छिन सकल, चौंसठि कला सुजान।
जानि चतुर्दस अंग खट, रति बसंत परमान॥

सषियन संग खेलत फिरत, महलनि बग्ग निवास।
कीर इक्क दिष्षिय नयन, तब मन भयो हुलास॥

मन अति भयौ हुलास, बिगसि जनु कोक किरन-रबि।
अरुन अधर तिय सुघर, बिंबफल जानि कीर छबि॥

यह चाहत चष चकित, उह जु तक्किय झरंप्पि झर।
चंचु चहुट्टिय लोभ, लियो तब गहित अप्प कर॥

हरषत अनंद मन मँह हुलस, लै जु महल भीतर गइय।
पंजर अनूप नग मनि जटित, सो तिहि मँह रष्षत भइय॥

तिहि महल रष्षत भइय, गइय खेल सब भुल्ल।
चित्त चहुँट्टयो कीर सों, राम पढ़ावत फुल्ल॥

कीर कुंवरि तन निरषि दिषि, नष सिष लौं यह रूप।
करता करी बनाय कै, यह पद्मिनी सरूप॥

कुट्टिल केस सुदेस पोहप रचयित पिक्क सद।
कमल-गंध, वय-संध, हंसगति चलत मंद मंद॥

सेत वस्त्र सोहे सरीर, नष स्वाति बूँद जस।
भमर-भमहिं भुल्लहिं सुभाव मकरंद वास रस॥

नैनन निरषि सुष पाय सुक, यह सुदिन्न मूरति रचिय।
उमा प्रसाद हर हेरियत, मिलहि राज प्रथिराज जिय॥

अर्जुन की प्रतिज्ञा ( Arjun Ki Pratigya) - मैथिलीशरण गुप्त ( Maithilisharan Gupt)

उस काल मारे क्रोध के तन काँपने उसका लगा,
मानों हवा के वेग से सोता हुआ सागर जगा ।
मुख-बाल-रवि-सम लाल होकर ज्वाल सा बोधित हुआ,
प्रलयार्थ उनके मिस वहाँ क्या काल ही क्रोधित हुआ ?

युग-नेत्र उनके जो अभी थे पूर्ण जल की धार-से,
अब रोश के मारे हुए, वे दहकते अंगार-से ।
निश्चय अरुणिमा-मिस अनल की जल उठी वह ज्वाल ही,
तब तो दृगों का जल गया शोकाश्रु जल तत्काल ही ।

साक्षी रहे संसार करता हूँ प्रतिज्ञा पार्थ मैं,
पूरा करूँगा कार्य सब कथानुसार यथार्थ मैं ।
जो एक बालक को कपट से मार हँसते हैँ अभी,
वे शत्रु सत्वर शोक-सागर-मग्न दीखेंगे सभी ।

अभिमन्यु-धन के निधन से कारण हुआ जो मूल है,
इससे हमारे हत हृदय को, हो रहा जो शूल है,
उस खल जयद्रथ को जगत में मृत्यु ही अब सार है,
उन्मुक्त बस उसके लिये रौख नरक का द्वार है ।

उपयुक्त उस खल को न यद्यपि मृत्यु का भी दंड है,
पर मृत्यु से बढ़कर न जग में दण्ड और प्रचंड है ।
अतएव कल उस नीच को रण-मघ्य जो मारूँ न मैं,
तो सत्य कहता हूँ कभी शस्त्रास्त्र फिर धारूँ न मैं ।

अथवा अधिक कहना वृथा है, पार्थ का प्रण है यही,
साक्षी रहे सुन ये बचन रवि, शशि, अनल, अंबर, मही ।
सूर्यास्त से पहले न जो मैं कल जयद्रथ-वधकरूँ,
तो शपथ करता हूँ स्वयं मैं ही अनल में जल मरूँ ।

Thursday, September 16, 2010

लोहे के पेड़ हरे होंगे ( Lohe Ke Ped Hare Honge) - रामधारी सिंह 'दिनकर' (Ramdhari Singh 'Dinkar')

लोहे के पेड़ हरे होंगे,
तू गान प्रेम का गाता चल,
नम होगी यह मिट्टी ज़रूर,
आँसू के कण बरसाता चल

सिसकियों और चीत्कारों से,
जितना भी हो आकाश भरा,
कंकालों क हो ढेर,
खप्परों से चाहे हो पटी धरा

आशा के स्वर का भार,
पवन को लेकिन, लेना ही होगा,
जीवित सपनों के लिए मार्ग
मुर्दों को देना ही होगा।

रंगो के सातों घट उँड़ेल,
यह अँधियारी रँग जायेगी,
ऊषा को सत्य बनाने को
जावक नभ पर छितराता चल

आदर्शों से आदर्श भिड़े,
प्रज्ञा प्रज्ञा पर टूट रही।
प्रतिमा प्रतिमा से लड़ती है,
धरती की किस्मत फूट रही

आवर्तों का है विषम जाल,
निरुपाय बुद्धि चकराती है,
विज्ञान-यान पर चढी हुई
सभ्यता डूबने जाती है

जब-जब मस्तिष्क जयी होता,
संसार ज्ञान से चलता है,
शीतलता की है राह हृदय,
तू यह संवाद सुनाता चल

सूरज है जग का बुझा-बुझा,
चन्द्रमा मलिन-सा लगता है,
सब की कोशिश बेकार हुई,
आलोक न इनका जगता है,

इन मलिन ग्रहों के प्राणों में
कोई नवीन आभा भर दे,
जादूगर! अपने दर्पण पर
घिसकर इनको ताजा कर दे

दीपक के जलते प्राण,
दिवाली तभी सुहावन होती है,
रोशनी जगत् को देने को
अपनी अस्थियाँ जलाता चल

क्या उन्हें देख विस्मित होना,
जो हैं अलमस्त बहारों में,
फूलों को जो हैं गूँथ रहे
सोने-चाँदी के तारों में

मानवता का तू विप्र!
गन्ध-छाया का आदि पुजारी है,
वेदना-पुत्र! तू तो केवल
जलने भर का अधिकारी है

ले बड़ी खुशी से उठा,
सरोवर में जो हँसता चाँद मिले,
दर्पण में रचकर फूल,
मगर उस का भी मोल चुकाता चल

काया की कितनी धूम-धाम!
दो रोज चमक बुझ जाती है;
छाया पीती पीयुष,
मृत्यु के उपर ध्वजा उड़ाती है

लेने दे जग को उसे,
ताल पर जो कलहंस मचलता है,
तेरा मराल जल के दर्पण
में नीचे-नीचे चलता है

कनकाभ धूल झर जाएगी,
वे रंग कभी उड़ जाएँगे,
सौरभ है केवल सार, उसे
तू सब के लिए जुगाता चल

क्या अपनी उन से होड़,
अमरता की जिनको पहचान नहीं,
छाया से परिचय नहीं,
गन्ध के जग का जिन को ज्ञान नहीं

जो चतुर चाँद का रस निचोड़
प्यालों में ढाला करते हैं,
भट्ठियाँ चढाकर फूलों से
जो इत्र निकाला करते हैं

ये भी जाएँगे कभी, मगर,
आधी मनुष्यतावालों पर,
जैसे मुसकाता आया है,
वैसे अब भी मुसकाता चल

सभ्यता-अंग पर क्षत कराल,
यह अर्थ-मानवों का बल है,
हम रोकर भरते उसे,
हमारी आँखों में गंगाजल है

शूली पर चढ़ा मसीहा को
वे फूल नहीं समाते हैं
हम शव को जीवित करने को
छायापुर में ले जाते हैं

भींगी चाँदनियों में जीता,
जो कठिन धूप में मरता है,
उजियाली से पीड़ित नर के
मन में गोधूलि बसाता चल

यह देख नयी लीला उनकी,
फिर उनने बड़ा कमाल किया,
गाँधी के लोहू से सारे,
भारत-सागर को लाल किया

जो उठे राम, जो उठे कृष्ण,
भारत की मिट्टी रोती है,
क्या हुआ कि प्यारे गाँधी की
यह लाश न जिन्दा होती है

तलवार मारती जिन्हें,
बाँसुरी उन्हें नया जीवन देती,
जीवनी-शक्ति के अभिमानी!
यह भी कमाल दिखलाता चल

धरती के भाग हरे होंगे,
भारती अमृत बरसाएगी,
दिन की कराल दाहकता पर
चाँदनी सुशीतल छाएगी

ज्वालामुखियों के कण्ठों में
कलकण्ठी का आसन होगा,
जलदों से लदा गगन होगा,
फूलों से भरा भुवन होगा

बेजान, यन्त्र-विरचित गूँगी,
मूर्त्तियाँ एक दिन बोलेंगी,
मुँह खोल-खोल सब के भीतर
शिल्पी! तू जीभ बिठाता चल

Wednesday, September 15, 2010

भारत महिमा ( Bharat Mahima) - जयशंकर प्रसाद (Jaishankar Prasad)

हिमालय के आँगन में उसे, प्रथम किरणों का दे उपहार ।
उषा ने हँस अभिनंदन किया, और पहनाया हीरक-हार ।।
जगे हम, लगे जगाने विश्व, लोक में फैला फिर आलोक ।
व्योम-तुम पुँज हुआ तब नाश, अखिल संसृति हो उठी अशोक ।।
विमल वाणी ने वीणा ली, कमल कोमल कर में सप्रीत ।
सप्तस्वर सप्तसिंधु में उठे, छिड़ा तब मधुर साम-संगीत ।।
बचाकर बीच रूप से सृष्टि, नाव पर झेल प्रलय का शीत ।
अरुण-केतन लेकर निज हाथ, वरुण-पथ में हम बढ़े अभीत ।।
सुना है वह दधीचि का त्याग, हमारी जातीयता का विकास ।
पुरंदर ने पवि से है लिखा, अस्थि-युग का मेरा इतिहास ।।
सिंधु-सा विस्तृत और अथाह, एक निर्वासित का उत्साह ।
दे रही अभी दिखाई भग्न, मग्न रत्नाकर में वह राह ।।


धर्म का ले लेकर जो नाम, हुआ करती बलि कर दी बंद ।
हमीं ने दिया शांति-संदेश, सुखी होते देकर आनंद ।।
विजय केवल लोहे की नहीं, धर्म की रही धरा पर धूम ।
भिक्षु होकर रहते सम्राट, दया दिखलाते घर-घर घूम ।
यवन को दिया दया का दान, चीन को मिली धर्म की दृष्टि ।
मिला था स्वर्ण-भूमि को रत्न, शील की सिंहल को भी सृष्टि ।।
किसी का हमने छीना नहीं, प्रकृति का रहा पालना यहीं ।
हमारी जन्मभूमि थी यहीं, कहीं से हम आए थे नहीं ।।
जातियों का उत्थान-पतन, आँधियाँ, झड़ी, प्रचंड समीर ।
खड़े देखा, झेला हँसते, प्रलय में पले हुए हम वीर ।।
चरित थे पूत, भुजा में शक्ति, नम्रता रही सदा संपन्न ।
हृदय के गौरव में था गर्व, किसी को देख न सके विपन्न ।।
हमारे संचय में था दान, अतिथि थे सदा हमारे देव ।
वचन में सत्य, हृदय में तेज, प्रतिज्ञा मे रहती थी टेव ।।
वही है रक्त, वही है देश, वही साहस है, वैसा ज्ञान ।
वही है शांति, वही है शक्ति, वही हम दिव्य आर्य-संतान ।।
जियें तो सदा इसी के लिए, यही अभिमान रहे यह हर्ष ।
निछावर कर दें हम सर्वस्व, हमारा प्यारा भारतवर्ष ।।

Tuesday, September 14, 2010

रोटी और स्वाधीनता ( Roti Aur Swadheenta) - रामधारी सिंह 'दिनकर' (Ramdhari Singh 'Dinkar')

आजादी तो मिल गई, मगर, यह गौरव कहाँ जुगाएगा ?
मरभुखे ! इसे घबराहट में तू बेच न तो खा जाएगा ?
आजादी रोटी नहीं, मगर, दोनों में कोई वैर नहीं,
पर कहीं भूख बेताब हुई तो आजादी की खैर नहीं।

हो रहे खड़े आजादी को हर ओर दगा देनेवाले,
पशुओं को रोटी दिखा उन्हें फिर साथ लगा लेनेवाले।
इनके जादू का जोर भला कब तक बुभुक्षु सह सकता है ?
है कौन, पेट की ज्वाला में पड़कर मनुष्य रह सकता है ?

झेलेगा यह बलिदान ? भूख की घनी चोट सह पाएगा ?
आ पड़ी विपद तो क्या प्रताप-सा घास चबा रह पाएगा ?
है बड़ी बात आजादी का पाना ही नहीं, जुगाना भी,
बलि एक बार ही नहीं, उसे पड़ता फिर-फिर दुहराना भी।

Monday, September 13, 2010

फिर कर लेने दो प्यार प्रिये ( Phir Kar Lene Do Pyaar Priye) - दुष्यंत कुमार ( Dushyant Kumar)

अब अंतर में अवसाद नहीं
चापल्य नहीं उन्माद नहीं
सूना-सूना सा जीवन है
कुछ शोक नहीं आल्हाद नहीं

तव स्वागत हित हिलता रहता
अंतरवीणा का तार प्रिये ..

इच्छाएँ मुझको लूट चुकी
आशाएं मुझसे छूट चुकी
सुख की सुन्दर-सुन्दर लड़ियाँ
मेरे हाथों से टूट चुकी

खो बैठा अपने हाथों ही
मैं अपना कोष अपार प्रिये
फिर कर लेने दो प्यार प्रिये ..

जीवन नहीं मरा करता है ( Jeevan Nahin Mara Karta Hai ) - गोपालदास 'नीरज'(Gopaldas 'Neeraj')

छिप-छिप अश्रु बहाने वालों, मोती व्यर्थ बहाने वालों
कुछ सपनों के मर जाने से, जीवन नहीं मरा करता है


सपना क्या है, नयन सेज पर
सोया हुआ आँख का पानी
और टूटना है उसका ज्यों
जागे कच्ची नींद जवानी
गीली उमर बनाने वालों, डूबे बिना नहाने वालों
कुछ पानी के बह जाने से, सावन नहीं मरा करता है


माला बिखर गयी तो क्या है
खुद ही हल हो गयी समस्या
आँसू गर नीलाम हुए तो
समझो पूरी हुई तपस्या
रूठे दिवस मनाने वालों, फटी कमीज़ सिलाने वालों
कुछ दीपों के बुझ जाने से, आँगन नहीं मरा करता है


खोता कुछ भी नहीं यहाँ पर
केवल जिल्द बदलती पोथी
जैसे रात उतार चांदनी
पहने सुबह धूप की धोती
वस्त्र बदलकर आने वालों! चाल बदलकर जाने वालों!
चन्द खिलौनों के खोने से बचपन नहीं मरा करता है।


लाखों बार गगरियाँ फूटीं,
शिकन न आई पनघट पर,
लाखों बार किश्तियाँ डूबीं,
चहल-पहल वो ही है तट पर,
तम की उमर बढ़ाने वालों! लौ की आयु घटाने वालों!
लाख करे पतझर कोशिश पर उपवन नहीं मरा करता है।


लूट लिया माली ने उपवन,
लुटी न लेकिन गन्ध फूल की,
तूफानों तक ने छेड़ा पर,
खिड़की बन्द न हुई धूल की,
नफरत गले लगाने वालों! सब पर धूल उड़ाने वालों!
कुछ मुखड़ों की नाराज़ी से दर्पन नहीं मरा करता है !

Sunday, September 12, 2010

चेतक की वीरता ( Chetak Ki Veerta) - श्यामनारायण पाण्डेय (Shyamnarayan Pandey)

Special thanks to Raj Gurjar because of whom we have the complete poem. 

बकरों से बाघ लड़े¸
भिड़ गये सिंह मृग–छौनों से।
घोड़े गिर पड़े गिरे हाथी¸
पैदल बिछ गये बिछौनों से।।1।।

हाथी से हाथी जूझ पड़े¸
भिड़ गये सवार सवारों से।
घोड़ों पर घोड़े टूट पड़े¸
तलवार लड़ी तलवारों से।।2।।

हय–रूण्ड गिरे¸ गज–मुण्ड गिरे¸
कट–कट अवनी पर शुण्ड गिरे।
लड़ते–लड़ते अरि झुण्ड गिरे¸
भू पर हय विकल बितुण्ड गिरे।।3।।

क्षण महाप्रलय की बिजली सी¸
तलवार हाथ की तड़प–तड़प।
हय–गज–रथ–पैदल भगा भगा¸
लेती थी बैरी वीर हड़प।।4।।

क्षण पेट फट गया घोड़े का¸
हो गया पतन कर कोड़े का।
भू पर सातंक सवार गिरा¸
क्षण पता न था हय–जोड़े का।।5।।

चिंग्घाड़ भगा भय से हाथी¸
लेकर अंकुश पिलवान गिरा।
झटका लग गया¸ फटी झालर¸
हौदा गिर गया¸ निशान गिरा।।6।।

कोई नत–मुख बेजान गिरा¸
करवट कोई उत्तान गिरा।
रण–बीच अमित भीषणता से¸
लड़ते–लड़ते बलवान गिरा।।7।।

होती थी भीषण मार–काट¸
अतिशय रण से छाया था भय।
था हार–जीत का पता नहीं¸
क्षण इधर विजय क्षण उधर विजय।।8
 

कोई व्याकुल भर आह रहा¸
कोई था विकल कराह रहा।
लोहू से लथपथ लोथों पर¸
कोई चिल्ला अल्लाह रहा।।9।।

धड़ कहीं पड़ा¸ सिर कहीं पड़ा¸
कुछ भी उनकी पहचान नहीं।
शोणित का ऐसा वेग बढ़ा¸
मुरदे बह गये निशान नहीं।।10।।


मेवाड़–केसरी देख रहा¸
केवल रण का न तमाशा था।
वह दौड़–दौड़ करता था रण¸
वह मान–रक्त का प्यासा था।।11।।

चढ़कर चेतक पर घूम–घूम
करता मेना–रखवाली था।
ले महा मृत्यु को साथ–साथ¸
मानो प्रत्यक्ष कपाली था।।12।।

रण–बीच चौकड़ी भर–भरकर
चेतक बन गया निराला था।
राणा प्रताप के घोड़े से¸
पड़ गया हवा को पाला था।।13।।

गिरता न कभी चेतक–तन पर¸
राणा प्रताप का कोड़ा था।
वह दोड़ रहा अरि–मस्तक पर¸
या आसमान पर घोड़ा था।।14।।

जो तनिक हवा से बाग हिली¸
लेकर सवार उड़ जाता था।
राणा की पुतली फिरी नहीं¸
तब तक चेतक मुड़ जाता था।।15।।

कौशल दिखलाया चालों में¸
उड़ गया भयानक भालों में।
निभीर्क गया वह ढालों में¸
सरपट दौड़ा करवालों में।।16।।

है यहीं रहा¸ अब यहां नहीं¸
वह वहीं रहा है वहां नहीं।
थी जगह न कोई जहां नहीं¸
किस अरि–मस्तक पर कहां नहीं।।17।

बढ़ते नद–सा वह लहर गया¸
वह गया गया फिर ठहर गया।
विकराल ब्रज–मय बादल–सा
अरि की सेना पर घहर गया।।18।।

भाला गिर गया¸ गिरा निषंग¸
हय–टापों से खन गया अंग।
वैरी–समाज रह गया दंग
घोड़े का ऐसा देख रंग।।19।।

चढ़ चेतक पर तलवार उठा
रखता था भूतल–पानी को।
राणा प्रताप सिर काट–काट
करता था सफल जवानी को।।20।।

कलकल बहती थी रण–गंगा
अरि–दल को डूब नहाने को।
तलवार वीर की नाव बनी
चटपट उस पार लगाने को।।21।।

वैरी–दल को ललकार गिरी¸
वह नागिन–सी फुफकार गिरी।
था शोर मौत से बचो¸बचो¸
तलवार गिरी¸ तलवार गिरी।।22।।

पैदल से हय–दल गज–दल में
छिप–छप करती वह विकल गई!
क्षण कहां गई कुछ¸ पता न फिर¸
देखो चमचम वह निकल गई।।23।।

क्षण इधर गई¸ क्षण उधर गई¸
क्षण चढ़ी बाढ़–सी उतर गई।
था प्रलय¸ चमकती जिधर गई¸
क्षण शोर हो गया किधर गई।।24।।

क्या अजब विषैली नागिन थी¸
जिसके डसने में लहर नहीं।
उतरी तन से मिट गये वीर¸
फैला शरीर में जहर नहीं।।25।।

थी छुरी कहीं¸ तलवार कहीं¸
वह बरछी–असि खरधार कहीं।
वह आग कहीं अंगार कहीं¸
बिजली थी कहीं कटार कहीं।।26।।

लहराती थी सिर काट–काट¸
बल खाती थी भू पाट–पाट।
बिखराती अवयव बाट–बाट
तनती थी लोहू चाट–चाट।।27।।

सेना–नायक राणा के भी
रण देख–देखकर चाह भरे।
मेवाड़–सिपाही लड़ते थे
दूने–तिगुने उत्साह भरे।।28।।

क्षण मार दिया कर कोड़े से
रण किया उतर कर घोड़े से।
राणा रण–कौशल दिखा दिया
चढ़ गया उतर कर घोड़े से।।29।।

क्षण भीषण हलचल मचा–मचा
राणा–कर की तलवार बढ़ी।
था शोर रक्त पीने को यह
रण–चण्डी जीभ पसार बढ़ी।।30।। 
वह हाथी–दल पर टूट पड़ा¸
मानो उस पर पवि छूट पड़ा।
कट गई वेग से भू¸ ऐसा
शोणित का नाला फूट पड़ा।।31।।

जो साहस कर बढ़ता उसको
केवल कटाक्ष से टोक दिया।
जो वीर बना नभ–बीच फेंक¸
बरछे पर उसको रोक दिया।।32।।

क्षण उछल गया अरि घोड़े पर¸
क्षण लड़ा सो गया घोड़े पर।
वैरी–दल से लड़ते–लड़ते
क्षण खड़ा हो गया घोड़े पर।।33।।

क्षण भर में गिरते रूण्डों से
मदमस्त गजों के झुण्डों से¸
घोड़ों से विकल वितुण्डों से¸
पट गई भूमि नर–मुण्डों से।।34।।

ऐसा रण राणा करता था
पर उसको था संतोष नहीं
क्षण–क्षण आगे बढ़ता था वह
पर कम होता था रोष नहीं।।35।।

कहता था लड़ता मान कहां
मैं कर लूं रक्त–स्नान कहां।
जिस पर तय विजय हमारी है
वह मुगलों का अभिमान कहां।।36।।

भाला कहता था मान कहां¸
घोड़ा कहता था मान कहां?
राणा की लोहित आंखों से
रव निकल रहा था मान कहां।।37।।

लड़ता अकबर सुल्तान कहां¸
वह कुल–कलंक है मान कहां?
राणा कहता था बार–बार
मैं करूं शत्रु–बलिदान कहां?।।38।।

तब तक प्रताप ने देख लिया
लड़ रहा मान था हाथी पर।
अकबर का चंचल साभिमान
उड़ता निशान था हाथी पर।।39।।

वह विजय–मन्त्र था पढ़ा रहा¸
अपने दल को था बढ़ा रहा।
वह भीषण समर–भवानी को
पग–पग पर बलि था चढ़ा रहा।।40।

फिर रक्त देह का उबल उठा
जल उठा क्रोध की ज्वाला से।
घोड़ा से कहा बढ़ो आगे¸
बढ़ चलो कहा निज भाला से।।41।।

हय–नस नस में बिजली दौड़ी¸
राणा का घोड़ा लहर उठा।
शत–शत बिजली की आग लिये
वह प्रलय–मेघ–सा घहर उठा।।42।।

क्षय अमिट रोग¸ वह राजरोग¸
ज्वर सiन्नपात लकवा था वह।
था शोर बचो घोड़ा–रण से
कहता हय कौन¸ हवा था वह।।43।।

तनकर भाला भी बोल उठा
राणा मुझको विश्राम न दे।
बैरी का मुझसे हृदय गोभ
तू मुझे तनिक आराम न दे।।44।।

खाकर अरि–मस्तक जीने दे¸
बैरी–उर–माला सीने दे।
मुझको शोणित की प्यास लगी
बढ़ने दे¸ शोणित पीने दे।।45।।

मुरदों का ढेर लगा दूं मैं¸
अरि–सिंहासन थहरा दूं मैं।
राणा मुझको आज्ञा दे दे
शोणित सागर लहरा दूं मैं।।46।।

रंचक राणा ने देर न की¸
घोड़ा बढ़ आया हाथी पर।
वैरी–दल का सिर काट–काट
राणा चढ़ आया हाथी पर।।47।।

गिरि की चोटी पर चढ़कर
किरणों निहारती लाशें¸
जिनमें कुछ तो मुरदे थे¸
कुछ की चलती थी सांसें।।48।।

वे देख–देख कर उनको
मुरझाती जाती पल–पल।
होता था स्वर्णिम नभ पर
पक्षी–क्रन्दन का कल–कल।।49।।

मुख छिपा लिया सूरज ने
जब रोक न सका रूलाई।
सावन की अन्धी रजनी
वारिद–मिस रोती आई।।50।। 

Thursday, September 9, 2010

अपनी आजादी को हम हर्गिज़ मिटा सकते नही ( Apni Aazaadi Ko Hum Hargiz Mita Sakte Nahin) - शकील बदायूनी ( Shakeel Badayuni)

अपनी आज़ादी को हम हरगिज़ मिटा सकते नहीं
सर कटा सकते हैं लेकिन सर झुका सकते नहीं

हमने सदियों में ये आज़ादी की नेमत पाई है
सैंकड़ों कुर्बानियाँ देकर ये दौलत पाई है
मुस्कुरा कर खाई हैं सीनों पे अपने गोलियां
कितने वीरानो से गुज़रे हैं तो जन्नत पाई है
ख़ाक में हम अपनी इज्ज़़त को मिला सकते नहीं
अपनी आज़ादी को हम हरगिज़ मिटा सकते नहीं...

क्या चलेगी ज़ुल्म की अहले-वफ़ा के सामने
आ नहीं सकता कोई शोला हवा के सामने
लाख फ़ौजें ले के आए अमन का दुश्मन कोई
रुक नहीं सकता हमारी एकता के सामने
हम वो पत्थर हैं जिसे दुश्मन हिला सकते नहीं
अपनी आज़ादी को हम हरगिज़ मिटा सकते नहीं...

वक़्त की आवाज़ के हम साथ चलते जाएंगे
हर क़दम पर ज़िन्दगी का रुख बदलते जाएंगे
’गर वतन में भी मिलेगा कोई गद्दारे वतन
अपनी ताकत से हम उसका सर कुचलते जाएंगे
एक धोखा खा चुके हैं और खा सकते नहीं
अपनी आज़ादी को हम हरगिज़ मिटा सकते नहीं...

हम वतन के नौजवाँ है हम से जो टकरायेगा
वो हमारी ठोकरों से ख़ाक में मिल जायेगा
वक़्त के तूफ़ान में बह जाएंगे ज़ुल्मो-सितम
आसमां पर ये तिरंगा उम्र भर लहरायेगा
जो सबक बापू ने सिखलाया भुला सकते नहीं
सर कटा सकते है लेकिन सर झुका सकते नहीं...

जो बीत गई सो बात गई ( Jo Beet Gayi So Baat Gayi)

जीवन में एक सितारा था
माना वह बेहद प्यारा था
वह डूब गया तो डूब गया
अंबर के आंगन को देखो
कितने इसके तारे टूटे
कितने इसके प्यारे छूटे
जो छूट गए फ़िर कहाँ मिले
पर बोलो टूटे तारों पर
कब अंबर शोक मनाता है
जो बीत गई सो बात गई

जीवन में वह था एक कुसुम
थे उस पर नित्य निछावर तुम
वह सूख गया तो सूख गया
मधुबन की छाती को देखो
सूखी कितनी इसकी कलियाँ
मुरझाईं कितनी वल्लरियाँ
जो मुरझाईं फ़िर कहाँ खिलीं
पर बोलो सूखे फूलों पर
कब मधुबन शोर मचाता है
जो बीत गई सो बात गई

जीवन में मधु का प्याला था
तुमने तन मन दे डाला था
वह टूट गया तो टूट गया
मदिरालय का आंगन देखो
कितने प्याले हिल जाते हैं
गिर मिट्टी में मिल जाते हैं
जो गिरते हैं कब उठते हैं
पर बोलो टूटे प्यालों पर
कब मदिरालय पछताता है
जो बीत गई सो बात गई

मृदु मिट्टी के बने हुए हैं
मधु घट फूटा ही करते हैं
लघु जीवन ले कर आए हैं
प्याले टूटा ही करते हैं
फ़िर भी मदिरालय के अन्दर
मधु के घट हैं,मधु प्याले हैं
जो मादकता के मारे हैं
वे मधु लूटा ही करते हैं
वह कच्चा पीने वाला है
जिसकी ममता घट प्यालों पर
जो सच्चे मधु से जला हुआ
कब रोता है चिल्लाता है
जो बीत गई सो बात गई


Wednesday, September 8, 2010

कृष्ण की चेतावनी (Krishna Ki Chetawani) - रामधारी सिंह 'दिनकर' (Ramdhari Singh 'Dinkar')

वर्षों तक वन में घूम घूम
बाधा विघ्नों को चूम चूम
सह धूप घाम पानी पत्थर
पांडव आये कुछ और निखर

सौभाग्य न सब दिन होता है
देखें आगे क्या होता है

मैत्री की राह दिखाने को
सब को सुमार्ग पर लाने को
दुर्योधन को समझाने को
भीषण विध्वंस बचाने को
भगवान हस्तिनापुर आए
पांडव का संदेशा लाये

दो न्याय अगर तो आधा दो
पर इसमें भी यदि बाधा हो
तो दे दो केवल पाँच ग्राम
रखो अपनी धरती तमाम

हम वहीँ खुशी से खायेंगे
परिजन पे असी ना उठाएंगे

दुर्योधन वह भी दे ना सका
आशीष समाज की न ले सका
उलटे हरि को बाँधने चला
जो था असाध्य साधने चला

जब नाश मनुज पर छाता है
पहले विवेक मर जाता है

हरि ने भीषण हुँकार किया
अपना स्वरूप विस्तार किया
डगमग डगमग दिग्गज डोले
भगवान कुपित हो कर बोले

जंजीर बढ़ा अब साध मुझे
हां हां दुर्योधन बाँध मुझे

ये देख गगन मुझमे लय है
ये देख पवन मुझमे लय है
मुझमे विलीन झनकार सकल
मुझमे लय है संसार सकल

अमरत्व फूलता है मुझमे
संहार झूलता है मुझमे

भूतल अटल पाताल देख
गत और अनागत काल देख
ये देख जगत का आदि सृजन
ये देख महाभारत का रन

मृतकों से पटी हुई भू है
पहचान कहाँ इसमें तू है

अंबर का कुंतल जाल देख
पद के नीचे पाताल देख
मुट्ठी में तीनो काल देख
मेरा स्वरूप विकराल देख

सब जन्म मुझी से पाते हैं
फिर लौट मुझी में आते हैं

जिह्वा से काढती ज्वाला सघन
साँसों से पाता जन्म पवन
पर जाती मेरी दृष्टि जिधर
हंसने लगती है सृष्टि उधर

मैं जभी मूंदता हूँ लोचन
छा जाता चारो और मरण

बाँधने मुझे तू आया है
जंजीर बड़ी क्या लाया है
यदि मुझे बांधना चाहे मन
पहले तू बाँध अनंत गगन

सूने को साध ना सकता है
वो मुझे बाँध कब सकता है

हित वचन नहीं तुने माना
मैत्री का मूल्य न पहचाना
तो ले अब मैं भी जाता हूँ
अंतिम संकल्प सुनाता हूँ

याचना नहीं अब रण होगा
जीवन जय या की मरण होगा

टकरायेंगे नक्षत्र निखर
बरसेगी भू पर वह्नी प्रखर
फन शेषनाग का डोलेगा
विकराल काल मुंह खोलेगा

दुर्योधन रण ऐसा होगा
फिर कभी नहीं जैसा होगा

भाई पर भाई टूटेंगे
विष बाण बूँद से छूटेंगे
सौभाग्य मनुज के फूटेंगे
वायस शृगाल सुख लूटेंगे

आखिर तू भूशायी होगा
हिंसा का पर्दायी होगा

थी सभा सन्न, सब लोग डरे
चुप थे या थे बेहोश पड़े
केवल दो नर न अघाते थे
ध्रीत्रास्त्र विदुर सुख पाते थे

कर जोड़ खरे प्रमुदित निर्भय
दोनों पुकारते थे जय, जय

पोल-खोलक यंत्र (Pol Kholak Yantra)

ठोकर खाकर हमने
जैसे ही यंत्र को उठाया,
मस्तक में शूं-शूं की ध्वनि हुई
कुछ घरघराया।
झटके से गरदन घुमाई,
पत्नी को देखा
अब यंत्र से
पत्नी की आवाज़ आई-
मैं तो भर पाई!
सड़क पर चलने तक का
तरीक़ा नहीं आता,
कोई भी मैनर
या सली़क़ा नहीं आता।
बीवी साथ है
यह तक भूल जाते हैं,
और भिखमंगे नदीदों की तरह
चीज़ें उठाते हैं।
....इनसे
इनसे तो
वो पूना वाला
इंजीनियर ही ठीक था,
जीप में बिठा के मुझे शॉपिंग कराता
इस तरह राह चलते
ठोकर तो न खाता।
हमने सोचा-
यंत्र ख़तरनाक है!
और ये भी एक इत्तेफ़ाक़ है
कि हमको मिला है,
और मिलते ही
पूना वाला गुल खिला है।

और भी देखते हैं
क्या-क्या गुल खिलते हैं?
अब ज़रा यार-दोस्तों से मिलते हैं।
तो हमने एक दोस्त का
दरवाज़ा खटखटाया
द्वार खोला, निकला, मुस्कुराया,
दिमाग़ में होने लगी आहट
कुछ शूं-शूं
कुछ घरघराहट।
यंत्र से आवाज़ आई-
अकेला ही आया है,
अपनी छप्पनछुरी,
गुलबदन को
नहीं लाया है।
प्रकट में बोला-
ओहो!
कमीज़ तो बड़ी फ़ैन्सी है!
और सब ठीक है?
मतलब, भाभीजी कैसी हैं?
हमने कहा-
भा...भी....जी
या छप्पनछुरी गुलबदन?
वो बोला-
होश की दवा करो श्रीमन्‌
क्या अण्ट-शण्ट बकते हो,
भाभीजी के लिए
कैसे-कैसे शब्दों का
प्रयोग करते हो?
हमने सोचा-
कैसा नट रहा है,
अपनी सोची हुई बातों से ही
हट रहा है।
सो फ़ैसला किया-
अब से बस सुन लिया करेंगे,
कोई भी अच्छी या बुरी
प्रतिक्रिया नहीं करेंगे।

लेकिन अनुभव हुए नए-नए
एक आदर्शवादी दोस्त के घर गए।
स्वयं नहीं निकले
वे आईं,
हाथ जोड़कर मुस्कुराईं-
मस्तक में भयंकर पीड़ा थी
अभी-अभी सोए हैं।
यंत्र ने बताया-
बिल्कुल नहीं सोए हैं
न कहीं पीड़ा हो रही है,
कुछ अनन्य मित्रों के साथ
द्यूत-क्रीड़ा हो रही है।
अगले दिन कॉलिज में
बी०ए० फ़ाइनल की क्लास में
एक लड़की बैठी थी
खिड़की के पास में।
लग रहा था
हमारा लैक्चर नहीं सुन रही है
अपने मन में
कुछ और-ही-और
गुन रही है।
तो यंत्र को ऑन कर
हमने जो देखा,
खिंच गई हृदय पर
हर्ष की रेखा।
यंत्र से आवाज़ आई-
सरजी यों तो बहुत अच्छे हैं,
लंबे और होते तो
कितने स्मार्ट होते!
एक सहपाठी
जो कॉपी पर उसका
चित्र बना रहा था,
मन-ही-मन उसके साथ
पिकनिक मना रहा था।
हमने सोचा-
फ़्रायड ने सारी बातें
ठीक ही कही हैं,
कि इंसान की खोपड़ी में
सैक्स के अलावा कुछ नहीं है।
कुछ बातें तो
इतनी घिनौनी हैं,
जिन्हें बतलाने में
भाषाएं बौनी हैं।

एक बार होटल में
बेयरा पांच रुपये बीस पैसे
वापस लाया
पांच का नोट हमने उठाया,
बीस पैसे टिप में डाले
यंत्र से आवाज़ आई-
चले आते हैं
मनहूस, कंजड़ कहीं के साले,
टिप में पूरे आठ आने भी नहीं डाले।
हमने सोचा- ग़नीमत है
कुछ महाविशेषण और नहीं निकाले।

ख़ैर साहब!
इस यंत्र ने बड़े-बड़े गुल खिलाए हैं
कभी ज़हर तो कभी
अमृत के घूंट पिलाए हैं।
- वह जो लिपस्टिक और पाउडर में
पुती हुई लड़की है
हमें मालूम है
उसके घर में कितनी कड़की है!
- और वह जो पनवाड़ी है
यंत्र ने बता दिया
कि हमारे पान में
उसकी बीवी की झूठी सुपारी है।
एक दिन कविसम्मेलन मंच पर भी
अपना यंत्र लाए थे
हमें सब पता था
कौन-कौन कवि
क्या-क्या करके आए थे।

ऊपर से वाह-वाह
दिल में कराह
अगला हूट हो जाए पूरी चाह।
दिमाग़ों में आलोचनाओं का इज़ाफ़ा था,
कुछ के सिरों में सिर्फ
संयोजक का लिफ़ाफ़ा था।

ख़ैर साहब,
इस यंत्र से हर तरह का भ्रम गया
और मेरे काव्य-पाठ के दौरान
कई कवि मित्र
एक साथ सोच रहे थे-
अरे ये तो जम गया!

Tuesday, September 7, 2010

झाँसी की रानी (Jhansi Ki Rani) - सुभद्रा कुमारी चौहान (Subhadra Kumari Chauhan)

सिंहासन हिल उठे राजवंषों ने भृकुटी तनी थी,
बूढ़े भारत में आई फिर से नयी जवानी थी,
गुमी हुई आज़ादी की कीमत सबने पहचानी थी,
दूर फिरंगी को करने की सब ने मन में ठनी थी.
चमक उठी सन सत्तावन में, यह तलवार पुरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वो तो झाँसी वाली रानी थी.


कानपुर के नाना की मुह बोली बहन छब्बिली थी,
लक्ष्मीबाई नाम, पिता की वो संतान अकेली थी,
नाना के सॅंग पढ़ती थी वो नाना के सॅंग खेली थी
बरछी, ढाल, कृपाण, कटारी, उसकी यही सहेली थी.
वीर शिवाजी की गाथाएँ उसकी याद ज़बानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वो तो झाँसी वाली रानी थी.


लक्ष्मी थी या दुर्गा थी वो स्वयं वीरता की अवतार,
देख मराठे पुलकित होते उसकी तलवारों के वार,
नकली युध-व्यूह की रचना और खेलना खूब शिकार,
सैन्य घेरना, दुर्ग तोड़ना यह थे उसके प्रिय खिलवाड़.
महाराष्‍ट्रा-कुल-देवी उसकी भी आराध्या भवानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वो तो झाँसी वाली रानी थी.

हुई वीरता की वैभव के साथ सगाई झाँसी में,
ब्याह हुआ बन आई रानी लक्ष्मी बाई झाँसी में,
राजमहल में बाजी बधाई खुशियाँ छायी झाँसी में,
सुघत बुंडेलों की विरूदावली-सी वो आई झाँसी में.
चित्रा ने अर्जुन को पाया, शिव से मिली भवानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वो तो झाँसी वाली रानी थी.

उदित हुआ सौभाग्या, मुदित महलों में उजियली च्छाई,
किंतु कालगती चुपके-चुपके काली घटा घेर लाई,
तीर चलाने वाले कर में उसे चूड़ियाँ कब भाई,
रानी विधवा हुई है, विधि को भी नहीं दया आई.
निसंतान मारे राजाजी, रानी शोक-सामानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वो तो झाँसी वाली रानी थी.

बुझा दीप झाँसी का तब डॅल्लूसियी मान में हरसाया,
ऱाज्य हड़प करने का यह उसने अच्छा अवसर पाया,
फ़ौरन फौज भेज दुर्ग पर अपना झंडा फेहराया,
लावारिस का वारिस बनकर ब्रिटिश राज झाँसी आया.
अश्रुपुर्णा रानी ने देखा झाँसी हुई वीरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वो तो झाँसी वाली रानी थी.

अनुनय विनय नहीं सुनती है, विकट शासकों की मॅयैया,
व्यापारी बन दया चाहता था जब वा भारत आया,
डल्हौसि ने पैर पसारे, अब तो पलट गयी काया
राजाओं नव्वाबों को भी उसने पैरों ठुकराया.
रानी दासी बनी, बनी यह दासी अब महारानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वो तो झाँसी वाली रानी थी.

छीनी राजधानी दिल्ली की, लखनऊ छीना बातों-बात,
क़ैद पेशवा था बिठुर में, हुआ नागपुर का भी घाट,
ऊदैपुर, तंजोर, सतारा, कर्नाटक की कौन बिसात?
जबकि सिंध, पंजाब ब्रह्म पर अभी हुआ था वज्र-निपात.
बंगाले, मद्रास आदि की भी तो वही कहानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वो तो झाँसी वाली रानी थी.

रानी रोई रनवासों में, बेगम गुम सी थी बेज़ार,
उनके गहने कपड़े बिकते थे कलकत्ते के बाज़ार,
सरे आम नीलाम छपते थे अँग्रेज़ों के अख़बार,
"नागपुर के ज़ेवर ले लो, लखनऊ के लो नौलख हार".
यों पर्दे की इज़्ज़त परदेसी के हाथ बीकानी थी
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वो तो झाँसी वाली रानी थी.

कुटियों में भी विषम वेदना, महलों में आहत अपमान,
वीर सैनिकों के मान में था अपने पुरखों का अभिमान,
नाना धूंधूपंत पेशवा जूटा रहा था सब सामान,
बहिन छबीली ने रण-चंडी का कर दिया प्रकट आहवान.
हुआ यज्ञा प्रारंभ उन्हे तो सोई ज्योति जगानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वो तो झाँसी वाली रानी थी.

महलों ने दी आग, झोंपड़ी ने ज्वाला सुलगाई थी,
यह स्वतंत्रता की चिंगारी अंतरतम से आई थी,
झाँसी चेती, दिल्ली चेती, लखनऊ लपटें छाई थी,
मेरठ, कानपुर, पटना ने भारी धूम मचाई थी,
जबलपुर, कोल्हापुर, में भी कुछ हलचल उकसानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वो तो झाँसी वाली रानी थी.

इस स्वतंत्रता महायज्ञ में काई वीरवर आए काम,
नाना धूंधूपंत, तांतिया, चतुर अज़ीमुल्ला सरनाम,
अहमदशाह मौलवी, ठाकुर कुंवर सिंह, सैनिक अभिराम,
भारत के इतिहास गगन में अमर रहेंगे जिनके नाम.
लेकिन आज जुर्म कहलाती उनकी जो क़ुर्बानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वो तो झाँसी वाली रानी थी.

इनकी गाथा छोड़, चले हम झाँसी के मैदानों में,
जहाँ खड़ी है लक्ष्मीबाई मर्द बनी मर्दनों में,
लेफ्टिनेंट वॉकर आ पहुँचा, आगे बड़ा जवानों में,
रानी ने तलवार खींच ली, हुआ द्वंद्ध आसमानों में.
ज़ख़्मी होकर वॉकर भागा, उसे अजब हैरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वो तो झाँसी वाली रानी थी.

रानी बढ़ी कालपी आई, कर सौ मील निरंतर पार,
घोड़ा थक कर गिरा भूमि पर, गया स्वर्ग तत्काल सिधार,
यमुना तट पर अँग्रेज़ों ने फिर खाई रानी से हार,
विजयी रानी आगे चल दी, किया ग्वालियर पर अधिकार.
अँग्रेज़ों के मित्र सिंधिया ने छोड़ी राजधानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वो तो झाँसी वाली रानी थी.

विजय मिली, पर अँग्रेज़ों की फिर सेना घिर आई थी,
अबके जनरल स्मिथ सम्मुख था, उसने मुंहकी खाई थी,
काना और मंदरा सखियाँ रानी के संग आई थी,
यूद्ध क्षेत्र में ऊन दोनो ने भारी मार मचाई थी.
पर पीछे ह्यूरोज़ आ गया, हाय! घिरी अब रानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वो तो झाँसी वाली रानी थी.

तो भी रानी मार काट कर चलती बनी सैन्य के पार,
किंतु सामने नाला आया, था वो संकट विषम अपार,
घोड़ा अड़ा, नया घोड़ा था, इतने में आ गये अवार,
रानी एक, शत्रु बहुतेरे, होने लगे वार-पर-वार.
घायल होकर गिरी सिंहनी, उसे वीर गति पानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वो तो झाँसी वाली रानी थी.

रानी गयी सिधार चिता अब उसकी दिव्य सवारी थी,
मिला तेज से तेज, तेज की वो सच्ची अधिकारी थी,
अभी उम्र कुल तेईस की थी, मनुज नहीं अवतारी थी,
हमको जीवित करने आई बन स्वतंत्रता-नारी थी,
दिखा गयी पथ, सीखा गयी हमको जो सीख सिखानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वो तो झाँसी वाली रानी थी.

जाओ रानी याद रखेंगे ये कृतज्ञ भारतवासी,
यह तेरा बलिदान जागावेगा स्वतंत्रता अविनासी,
होवे चुप इतिहास, लगे सच्चाई को चाहे फाँसी,
हो मदमाती विजय, मिटा दे गोलों से चाहे झाँसी.
तेरा स्मारक तू ही होगी, तू खुद अमिट निशानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वो तो झाँसी वाली रानी थी.

Monday, September 6, 2010

सरफ़रोशी की तमन्ना (Sarfaroshi ki Tamanna) - बिस्मिल अज़ीमाबादी ( Bismil Azimabadi )

सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है
देखना है ज़ोर कितना बाज़ू-ए-क़ातिल में है

ऐ वतन, करता नहीं क्यूँ दूसरी कुछ बातचीत,
देखता हूँ मैं जिसे वो चुप तेरी महफ़िल में है
ऐ शहीद-ए-मुल्क-ओ-मिल्लत, मैं तेरे ऊपर निसार,
अब तेरी हिम्मत का चरचा ग़ैर की महफ़िल में है
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है

वक़्त आने पर बता देंगे तुझे, ए आसमान,
हम अभी से क्या बताएँ क्या हमारे दिल में है
खेँच कर लाई है सब को क़त्ल होने की उमीद,
आशिकों का आज जमघट कूचा-ए-क़ातिल में है
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है

है लिए हथियार दुश्मन ताक में बैठा उधर,
और हम तैयार हैं सीना लिए अपना इधर.
ख़ून से खेलेंगे होली अगर वतन मुश्क़िल में है
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है

हाथ, जिन में है जूनून, कटते नही तलवार से,
सर जो उठ जाते हैं वो झुकते नहीं ललकार से.
और भड़केगा जो शोला सा हमारे दिल में है,
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है

हम तो घर से ही थे निकले बाँधकर सर पर कफ़न,
जाँ हथेली पर लिए लो बढ चले हैं ये कदम.
ज़िंदगी तो अपनी मॆहमाँ मौत की महफ़िल में है
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है

यूँ खड़ा मक़्तल में क़ातिल कह रहा है बार-बार,
क्या तमन्ना-ए-शहादत भी किसी के दिल में है?
दिल में तूफ़ानों की टोली और नसों में इन्कलाब,
होश दुश्मन के उड़ा देंगे हमें रोको न आज.
दूर रह पाए जो हमसे दम कहाँ मंज़िल में है,
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है

वो जिस्म भी क्या जिस्म है जिसमे न हो ख़ून-ए-जुनून
क्या लड़े तूफ़ान से जो कश्ती-ए-साहिल में है
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है
देखना है ज़ोर कितना बाज़ू-ए-क़ातिल में

How this blog came about

I am not a poet or aspiring to become one. I wasn't an exceptional student of Hindi in my school life and struggled with the kavya saundaryas and the bhav saundaryas that the CBSE syllabus enforced upon me. I was more than glad when Hindi ceased to exist as an academic subject in my life.

But recently I discovered, and when I say discovered I really mean it, that I had a lot of Hindi poetry inside me. I was trying to explain to someone that Hindi had these things called alankars which are the equivalent of the similes and metaphors that you find in English and found to my own huge astonishment, that I remembered most of the various kinds of alankars and managed to give examples of almost all of them.

This epiphany got me going and I was up until way beyond midnight, deep diving into various rather unknown parts of my brain and coming out with other hindi poetry related stuff. There was a lot of Googling as well and at the end of it all, I was convinced that all the years of studying Hindi in school had left a more lasting imprint than I previously realized.

I want to indulge some more and more often and hence this blog.I am certain though that I will not be attempting to write poetry. I will just try to create a repository of all the poems that I like and add my comments to them.

I tried for one of the more obvious blog names but all of them were already taken. So I have named it after my favourite poet, whose most famous composition still gives me the goosebumps.

I really want to keep this going and hope it turns out like my love for sports and not like my love for my hometown.